कविता – तुम क्या जानो
सुखद कल की आस में ,
सुबह से शाम तक ,गृहस्थी का ठेला खींचते-खींचते ,
मैं कितना थक जाता हूँ …,
तुम क्या जानो …|
पेट की सलामती के लिए ,
बॉस की झिड़कियाँ आशीर्वचन समझकर
कितनी ही बार मुस्कुरा कर सहन कर लेता हूँ ,
तुम क्या जानो …|
रसोई के खाली कनस्तर मुंह न बिचकाएं,
मेरी ग़ुरबत पर उंगली न उठायें ,इसलिए
आते-दाल का भाव पूछते-पूछते बनिए के आगे
कितना सर खुजलाता हूँ और कितनी दुआ-सलाम बजाता हूँ ,
तुम क्या जानो …|
अखबार-सब्जी-दूध और बच्चों की फीस के बिल ,
ये सारे मिल ,
मेरी नींद में कितना खलल डालते हैं ,
कितनी बेचैनी मुझ पर उछालते हैं ,
तुम क्या जानो…..|
अभावों के साये में दबा-उलझा ,
मुक्त होने के लिए छटपटाता ,न जाने किस-किस
के आगे ,
कितना रिरयाता हूँ ,
तुम क्या जानो …|
कंटीली-पत्थरीली राह पर ,
मंजिल की आस में घिसटत-लुढ़कता,लहुलुहान हुआ ,
कितना कराहता हूँ ,कितने जख्म छुपाता हूँ ,
तुम क्या जानो …|
इस बोझ से लदा-लदा भी ,
चल-चल कर थका-थका भी ,
तुम्हारे आगोश में आता हूँ
तो कितना सुख पाता हूँ ,
तुम क्या जानो ,
तुम क्या जानो….||
— अशोक दर्द