ग़ज़ल
थोड़ा और सियाना कर दे।
माज़ी से अन्जाना कर दे।
हरदम पीना भाता उनमें,
आँखों को पैमाना कर दे।
उल्फ़त के जो दुश्मन जग में,
उन पर अब जुर्माना कर दे।
और नहीं प्रतिद्वन्दी कोई,
दाम अभी मनमाना कर दे।
कहते इश्क़ उसे ही सच्चा,
जो जग से बेगाना कर दे।
— हमीद कानपुरी