जुगाड़
“कुछ लोग कहते हैं कि औरत का कोई घर नहीं होता है,लेकिन सच तो ये है कि औरत के बिना कोई घर घर नहीं होता है.”
“अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस” के अवसर पर छुटभैये नेता मनोहरलाल का भाषण चल रहा था. एक-एक कथन पर तालियों की गड़गड़ाहट से सभागार गूंज रहा था.
“नारी पूजनीय होती है, यह बात कदापि भुलानी नहीं है!”
“सोचो तो सही, भ्रूण हत्या कर बेटियों को मारते जाओगे, तो कन्या-पूजन के लिए कन्याएं कहां से लाओगे?”
“मनोहरलाल जी की मनोहर बातें तो सचमुच सराहनीय हैं.” लोग कह रहे थे.
मंच से उतरने पर उन्हें मालाओं से लाद दिया गया. सीना फुलाते, तोंद संभालते मनोहरलाल जी गाड़ी में सवार हो घर को चले.
“बहू का भ्रूण-परीक्षण हो गया?” घर में आते ही चिल्लाते हुए पत्नी से पूछा.
“हो गया.” पत्नी ने धीरे से चुप रहने का इशारा करते हुए कहा.
“बेटा निकला न!” उत्सुकता चरम पर थी.
“नहीं, बेटी.”
“लो, फिर छोरी! इस बार भी गर्भ गिरवाना होगा.”
पत्नी क्या कहती! वह तो खुद भी तीन बार यही सब भोग चुकी थी.
“कल ही डॉ. हरिप्रसाद से मिलके जुगाड़ लगवाता हूं!” गले से मालाएं निकाल पटकीं और सोफे पर पसर गए.
“सोचो तो सही, भ्रूण हत्या कर बेटियों को मारते जाओगे, तो कन्या-पूजन के लिए कन्याएं कहां से लाओगे?” अंदर टी.व्ही. पर मनोहरलाल के भाषण की झलकियों का प्रसारण चल रहा था.
— लीला तिवानी