प्रभावशाली उपचार हेतु सही निदान आवश्यक
आज जो निदान के भौतिक साधन उपलब्ध हैं, वे व्यक्ति की मानसिकताओं, भावनाओं, कल्पनाओं, संवेदनाओं, आवेगों का विश्लेशण नहीं कर सकते। भय, दुःख, चिन्ता, तनाव, निराशा, अधीरता, पाश्विक वृत्तियाँ, गलत सोच, क्रोध, छल, कपट, तृश्णा, अहं, असन्तोश से होने वाले रासायनिक परिवर्तनों को नहीं बता सकते। भौतिक उपकरण और परीक्षण के तौर-तरीकों से रोगों से पड़ने वाले प्रत्यक्ष भौतिक परिवर्तनों का ही पता लगाया जा सकता है, उनके मूल कारणों तक नहीं पहुँचा जा सकता है। उसके आधार पर किया गया उपचार तो मात्र शरीर में होने वाले भौतिक परिवर्तनों तक ही सीमित होता है। शरीर की पीड़ाओं अथवा निश्क्रियताओं से हम घबरा जाते हैं, उन्हीं को रोग मानते हैं। चेतना का अस्तित्व एवं विकास प्रायः उनके कार्यक्षेत्र में नहीं होता है।
क्या स्वास्थ्य हेतु समान मापदण्डों का निर्धारण सम्भव है?
दुनियां में कोई दो व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से एक जैसे नहीं हो सकतें? क्या उनके जीवन का लक्ष्य, प्राथमिकताएँ, कर्त्तव्य, आवश्यकताएँ, समस्याएँ आदि एक जैसी ही होती है? नहीं! अतः बाह्य रूप से कुछ लक्षणों में समानता होने के कारण एक जैसी-दवा अथवा उपचार करना, किसी एक रोग के नाम से रोगी का परिचय करना, सहयोगी रोगों की उपेक्षा करना कहाँ तक उचित है?जो चिन्तनशील व्यक्तियों के सम्यक् चिन्तन की अपेक्षा रखता है।
जितनी और जैसी रोग की स्थिति, उसके अनुरूप ही समाधान अपेक्षित होता है। जिसकी जितनी बुद्धि, विवेक, पात्रता, समझ और क्षमता होती है, उसको उसी के अनुरूप समाधान अथवा परामर्श दिया जा सकता है। प्रत्येक व्यक्ति का खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, आवास-प्रवास, आयु, व्यवसाय, कर्त्तव्य, जिम्मेदारियाँ, रूचि, स्वभाव, सहनशक्ति, सोच, शारीरिक और मानसिक क्षमता, पारिवारिक एवं व्याससायिक परिस्थितियाँ, रीति-रिवाज, धार्मिक संस्कार और मान्यताएँ, मौसम की स्थिति और बदलाव, सहयोगी एवं द्वेशी लोगों का योग आदि दैनिक जीवन में ऐसे अनेकों कारण होते हैं जो व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करते हैं, व्यक्ति में तनाव अथवा प्रसन्नता का कारण बनते हैं।
क्या शरीर में अकेला रोग हो सकता है?
हमारे शरीर में प्रायः सैकड़ों रोग होते हैं। जिनकी उपस्थिति का हमें आभास तक नहीं होता है। हम रोग को तब तक रोग नहीं मानते, जब तक उनके लक्षण स्पश्ट रूप से प्रकट नहीं हो जाते या हमें परेशान करने नहीं लग जाते अथवा रोग हमारी सहनशक्ति से परे नहीं होने लगता है।
रोग के जो लक्षण बाह्य रूप से प्रकट होते हैं, अथवा पेथालोजिकल टेस्टों एवं यंत्रों की पकड़ में आते हैं, वे लक्षण तो सामान्य ही होते हैं, जिनके आधार पर प्रायः रोगों का नामःकरण किया जाता है। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों के अधिकांश चिकित्सक भी प्रायः अपने सिद्धान्तों के अनुरूप निदान करने के स्थान पर उसी निदान को शत-प्रतिशत सही मान अपने-अपने ढंग से उन रोगों का उपचार करते हैं। पुराने अनुभवी वैद्य रोगी की नाड़ी देखकर रोग का सही निदान करने में सक्षम थे। परन्तु आज आयुर्वेद में भी निदान का वह आधार गौण होता जा रहा है। इसी कारण उसका प्रभाव भी दिन प्रतिदिन घटता जा रहा है। ठीक उसी प्रकार एक्युप्रेशर की सुजोक अथवा रिफ्लेक्सोलोजी के अनुसार हथेली और पगथली के जिन स्थानों पर दबाव देने से दर्द होता है, वे सारे स्थान शरीर में रोग के पारिवारिक सदस्य होते हैं, जितना अधिक दर्द उतना रोग निवारण हेतु प्रभावशाली प्रतिवेदन बिन्दू होता है। परन्तु आज अधिकांश एक्यूप्रेशर चिकित्सक भी अपने सहज, सरल, सही निदान के तरीकों से दूर हट, आधुनिक निदान के आधार पर प्रदर्शित रोग का ही उपचार करते हैं। परिणाम स्वरूप उपचार की प्रभावशालीता न केवल कम हो जाती है, अपितु उपचार आंशिक होने से लम्बा भी हो जाता है।
क्या समान लक्षणों वाले दो रोगी एक जैसे हो सकते हैं?
दुनियां में जब दो व्यक्ति एक जैसे नहीं हो सकते, तब दो रोगियों और उनका निदान एक जैसा कैसे हो सकता है?वास्तव में आज लक्षणों के आधार पर जिन रोगों का नामःकरण किया जाता है, वे अनेक रोगों के समूह के नेता की भांति होते हैं। जिन्हें सैकड़ों अप्रत्यक्ष रोगों का सहयोग प्राप्त होता है। जनतंत्र में नेता को हटाने का सरलतम उपाय होता है कि उसके सहयोगियों को उनसे अलग करना। सहयोगियों को अलग किये बिना नेता को हटाना सरल नहीं होता। ठीक उसी प्रकार निदान करते समय, यदि अप्रत्यक्ष रोगों की उपेक्षा करें तो, निदान और उस पर आधारित उपचार आंशिक अथवा अधूरा ही होता है।
निदान में आयु का महत्त्व-
कोई भी रोग रातों रात अपना विकराल रूप धारण नहीं करता। जिस प्रकार बीज धीरे-धीरे वृक्ष का रूप लेता है उसी प्रकार रोग भी धीरे-धीरे अपना प्रभाव दिखाता है। शरीर में वायु, गर्मी, नमी, शुश्कता और ठण्डक का जीवन की विभिन्न अवस्थाओं में अलग-अलग अनुपात होता है। जिस अवस्था का रोग होता है, रोग के कारणों में उस अवस्था से संबंधित ऊर्जा की प्रभावी भूमिका होती है। जैसे बच्चा चंचल न हों, युवाओं में जोश न हों, तो असंतुलन के कारण माने जाते हैं। अतः एक ही प्रकार के लक्षणों से परिभाशित रोगों के कारण अलग-अलग होते हैं। उनका अलग-अलग अंगों की मुख्य अथवा सहायक ऊर्जा से भी अलग-अलग संबंध होता है। अतः सही निदान करते समय व्यक्ति की आयु के प्रभाव का भी महत्त्व होता है।
मौसम का प्रभाव-
अलग-अलग जलवायु में अलग-अलग ऊर्जाएँ प्रभावशाली होती है। अतः रोग का निदान करते समय उस जलवायु से संबंधित प्रमुख अंग में ऊर्जा असंतुलन की रोग के कारणों में मुख्य भूमिका होती है। एक जैसे बाह्य लक्षण वाले रोगों में बसन्त ऋतु में, यकृत-पित्ताशय, गर्मी में हृदय-छोटी आंत, वर्शा अथवा बदलते मौसम में तिल्ली-आमाशय, सर्दी की मौसम में, गुर्दे-मूत्राशय आदि में असंतुलन रोग का प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष कारण हो सकता है।
शारीरिक ध्वनियाँ और रोग-
प्रत्येक व्यक्ति के शरीर से अलग-अलग प्रकार की आवाजें निकलती हैं। जैसे कोई निद्रा में खर्राटें लेता है तो किसी को डकारें, जम्भाईयाँ, हिचकियाँ, छीकें, खांसी आती है। किसी की आवाज बदल जाती है तो, किसी के आवाज के साथ गैस विसर्जित होती है। किसी की आवाज मधुर सुरीली होती है तो, किसी की कर्कश और मोटी क्यों? शरीर में इन ध्वनियों के स्पन्दन का नियन्त्रण कौन और कैसे करता है? क्या इन ध्वनियों का हमारे स्वास्थ्य से कोई संबंध होता है? क्या इन ध्वनियों को मन चाहें घटाना, बढ़ाना संभव होता है? क्या निदान में इनकी समीक्षा होती है?
रंग और रोग-
कोई काला तो कोई गोरा या अन्य रंग वाला क्यों? कभी-कभी शरीर के कुछ भाग काले, नीले या लाल क्यों हो जाते हैं? कभी-कभी त्वचा का रंग क्यों उड़ जाता है? क्या आधुनिक परीक्षणों में इस परिवर्तन के कारणों का निदान संभव होता है? क्या इन परिवर्तनों का रोग से कोई संबंध होता है? इन रंगों के परिवर्तन में कौन से अंग की प्रभावी भूमिका होती है? इसके अतिरिक्त किसी को लाल तो किसी को पीला, हरा, नीला आदि रंग अच्छे या बुरे क्यों लगते हैं? क्या रंगों की पसन्द या नापसन्द का स्वास्थ्य से कोई संबंध होता है? क्या निदान करते समय इस तथ्य की उपेक्षा तो नहीं होती?
स्वाद और रोग-
किसी व्यक्ति को खट्टा तो किसी को मीठा, किसी को नमकीन तो किसी को चटपटा, क्यों अच्छा लगता है? क्या इन स्वादों की पसन्द या अरुचि का स्वास्थ्य से कोई संबंध होता है? मधुमेह वालों को मिठाई और रक्तचाप के रोगियों को नमक छोड़ने की क्यों सलाह दी जाती है? शरीर में उन स्वादों का नियन्त्रण कौन करता है? क्या अपनी इच्छानुसार जब चाहें स्वादों के प्रति लगाव बदला जा सकता है? क्या स्वादों की रूचि का रोग से संबध होता है?
गंध और रोग-
चन्द व्यक्ति अत्यधिक सुगन्ध प्रिय होते हैं। चन्द तनिक भी दुर्गन्ध सहन नहीं कर सकते। कुछ व्यक्तियों को दूर में कुछ जल रहा हो, सहज आभास हो जाता है, तो कुछ लोगों को समीप में जलने का भी आभास नहीं होता। किसी के शरीर से एक प्रकार की गंध आती है और अन्य के शरीर में दूसरे प्रकार की। ऐसा क्यों? क्या शरीर से निकलने वाली तथा बाहिर से आने वाली गन्धों के प्रति रूचि अथवा अरूचि के भाव का स्वास्थ्य से कोई संबंध होता है? क्या गन्ध का नियन्त्रण एक मात्र नाक से संबंधित होता है? क्या गन्ध के प्रति हमारी प्रकृति को दवा द्वारा मन चाहा बदलना संभव है? क्या गंध निदान को प्रभावित करती है?
निदान में नाभि की भूमिका-
नाभि उठते-बैठते, दौड़ते-चलते, सोते अथवा किसी भी स्थिति में शरीर के अंगों-उपांगों को अपने स्थान पर स्थिर रखती है। हमारी अधिकांश शारीरिक एवं मानसिक तथा आध्यात्मिक क्रियाओं के संचालन में इसकी प्रभावशाली भूमिका होती है। जैसे कमल पानी में रहता हुआ भी उससे अपने आपको अलग रखता है। ठीक उसी प्रकार नाभि जीवन की अधिकांश शारीरिक, मानसिक, आत्मिक गतिविधियों का संचालक होते हुए भी बाह्य रूप से अपना कोई संबंध नहीं दर्शाती। जिस प्रकार वृत का केन्द्र होते हुए भी चित्र में वह नहीं दिखता, ठीक उसी प्रकार मन व आत्मा की भांति नाभि भी एक्सरे अथवा सोनोग्राफी की पकड़ में नहीं आती।। अतः आज का ऐलोपैथिक विज्ञान इसके अस्तित्व को स्वीकार करने में परेशानी अनुभव कर रहा है।
यदि नाभि अपने स्थान से अन्दर की तरफ हो जाए, उस व्यक्ति का वजन दिन-प्रतिदिन घटता चला जाता है और यदि किसी कारण नाभि अपने स्थान से बाहर की तरफ हो जाती है तो शरीर का वजन न चाहते हुए भी अनावश्यक बढ़ने लगता है। किसी कारण नाभि यदि अपने स्थान से ऊपर की तरफ चढ़ जाती है तो खट्टी डकारें, अपच आदि की शिकायतें रहने लगती है। कब्जी हो सकती है। परन्तु यदि नाभि अपने स्थान से नीचे की तरफ चली जाती है तो दस्तों की शिकायत हो जाती है। इस प्रकार नाभि कभी दांयें-बांयें, तिरछी दिशाओं में भी हट जाती है, जिससे शरीर में अनेक प्रकार के रोग होने लगते हैं। सारे परीक्षण एवं पेथोलोजिकल टेस्ट करने के पश्चात् भी रोग पकड़ में नहीं आता। ऐसे में नाभि केन्द्र को अपने केन्द्र में लाने से तुरन्त राहत मिलने लग जाती है। अतः नाभि की उपेक्षा करने वाला निदान सही एवं वैज्ञानिक होने का अहं नहीं कर सकता।
परन्तु आज स्वास्थ्य का परामर्श देते समय अथवा रोग की अवस्था में निदान करते समय प्रायः अधिकांश चिकित्सक अथवा स्वास्थ्य विशेशज्ञ व्यक्ति के स्वास्थ्य को प्रभावित करने वाले उपरोक्त प्रभावों का समग्रता से विश्लेशण नहीं करते। रोगी द्वारा निदान की सत्यता पर स्पष्टीकरण मांगने पर संतोषप्रद तर्क संगत प्रत्युत्तर नहीं देते। अतः चन्द अपवादों को छोड़ प्रायः उपचार और निदान रोगी की असजगता एवं अंधश्रद्धा के कारण अंधेरे में ही होता है।
सत्य की पूर्णतः अभिव्यक्ति नहीं की जा सकती। वह तो व्यक्ति के स्वयं की अनुभूति का विशय होता है। जो भी देखा जाता है, यंत्रों अथवा परीक्षणों से पता लगाया जाता है, वह सत्यांश ही होता है। ऐसा अधूरा निदान और परामर्श कैसे शत-प्रतिशत सत्य, वैज्ञानिक और पूर्ण हो सकता है?
— डॉ. चंचलमल चोरडिया