इक दिन मिट जाना है
सोहरत दौलत और जवानी
इक दिन इसे मिट जाना है
गुरूर घमंड रे अभिमानी
इक दिन ठंड पड़ जाना है
ईष्या द्वेष और तेरी बेईमानी
इक दिन इसे लुट जाना है
प्रेम प्यार और तेरी कुर्बानी
इक दिन फल दे जाना है
क्रोध तमस और तेरी बेईमानी
इक दिन दुःख ही दे जाना है
इतरा कर ना चल रे मनमानी
घर जवार भी छुट। जाना। है
इज्जत सम्मान और कद्रदानी
गर समाज में जिसे पाना है
परोपकार की बन जा वो। दानी
गर शराफतका तमगा पाना है
रे नर क्यूं लड़ता है पड़ोस से जुवानी
पानी की बुलबुला सा फूट जाना। है
दया धर्म दिल में है उन्हें सजानी
समाजिकता जिन्हें कहलाना। है
— उदय किशोर साह