कट,कॉपी,पेस्ट : अपना काम बैस्ट!
कट,कॉपी और पेस्ट आज के कंप्यूटर युग के लिए नए नहीं हैं। जो लोग कंप्यूटर और मोबाइल चलाने का अल्प ज्ञान भी रखते हैं ,वे भी इन तीन शब्दों से सुपरिचित हैं। सुपरिचित ही नहीं, बल्कि वे उसे बख़ूबी भुना भी रहे हैं। ज़ुबान के गूंगे भी सुमधुर गीत गुनगुना रहे हैं। महफ़िल में गज़ब ढा रहे हैं। मेडल औऱ शील्ड जीत फनफना रहे हैं।हे भगवान !ये कैसे दिन आ रहे हैं।जब चने के खेत में भाड़ भुने जा रहे हैं।
मेरे मतानुसार वर्तमान युग का प्रायः प्रत्येक व्यक्ति ,समाज, देश औऱ दुनिया इन तीन बातों से संचालित है।1.कट,कॉपी औऱ पेस्ट2.रेडीमेड और 3.शॉर्ट कट।ये तीनों ही बातें आपस में इस प्रकार घुल -मिल गई हैं कि वे परस्पर पूरक बनकर मानव -समाज की संचालिका बनकर उभरी हैं।आदमी को कामचोर बनाने वाली संस्कृति और कामचोरों के मजे हैं। वही तो आज सर्वत्र फिरते सजे – धजे हैं।काम करने वालों के फजीते ही फजीते हैं।वे कितना भी काम करें ;पर वहाँ नहीं उजीते हैं।कामचोरों की मौज है।आज हर घर , गाँव, गली,नगर, सड़क या डगर – डगर उनकी ही फौज है।इधर से चुराया ,उधर भिजवाया।किसी औऱ के निर्माण पर अपना लेबिल सजाया।दर्शकों औऱ श्रोताओं को मूर्ख बनाया। इसी को कहते हैं,राम- राम जपना ,पराया माल अपना।नकलीपन की नकली संस्कृति का युग।सब कुछ ठगाई।दूसरे की वस्तु अपनी बनाई।
काम न करना पड़े। पसीना न बहाना पड़े ,दिमाग़ न लगाना पड़े; बस इसी जुगत में दिन- रात एक किये हुए हैं।इसलिए उन्हें एकमात्र रेडीमेड की दरकार है, जहाँ भी देखिए कामचोरों की सरकार है।खान – पान में फ़ास्ट फूड: पास्ता,मेकरोनी, नूडल्स,चाऊमीन,बर्गर,कोल्ड ड्रिंक और न जाने क्या- क्या! सूची लंबी है। बस इतने से ही समझ लें कि हम क्या – क्या नहीं खा रहे! औऱ अनगिनत बीमारियों को अपने देह धाम में असमय बुला रहे।इसी प्रकार का है हमारा पहनावा। भारतीय संस्कृति पर पश्चिम का धावा ! जींस,टॉप,स्कर्ट, लैगी, टी शर्ट, पिलाजो आदि का बुलावा।पहन रहे हैं किशोर , युवा ,प्रौढ़ या दादी बाबा।
राजमार्ग से कोई नहीं चलना चाहता।सबको पगडंडियाँ चाहिए। शॉर्टकट ही चाहिए।इसलिए तीव्र गति वाहन का है सर्वत्र संचलन। भागे चले जा रहे हैं, किन्तु किसी को नहीं पता कि जाना कहाँ है?उनकी मंजिल कहाँ है? बस चलते चले जाना है। न किसी की सुनना है न किसी को कुछ सुनाना है।अब घर नहीं ,घोंसलों में रहने का फैशन है।सब अपने-अपने दरबों में बंद हैं।जीवन में गति है, लय है न छंद है। सब कुछ अतुकांत नहीं, सर्वथा बेतुका।वह तो कुचल ही गया; जो थोड़ा – सा भी रुका, झुका या इधर -उधर उझका।फ्लैट -फैशन ने उन्हें मुर्गी का दरबा – वासी बना दिया है। फ्लैटों ने सब कुछ फ्लैट कर दिया है।बस अपनी इतनी – सी दुनिया में अंडे देते औऱ सेते रहो।अपनी नाव अपने आप खेते रहो।स्वार्थी हो , कोई भी तुम्हारी मदद को नहीं आएगा। कोई क्यों व्यर्थ कोर्ट- कचहरी से अपने कचों का हरण कराएगा!
सिनेमाई (फ़िल्मी) संस्कृति इस कदर हावी है कि मौलिकता का अंतिम संस्कार ही कर दिया गया है।कहीं किसी कालेज, विद्यालय, मेले, प्रदर्शनी, आदि में केवल नृत्य के नाम पर देह- संचालन ही बचा है। जैसे फिल्मों में गीतकार, संवाद- लेखक, गायक,अभिनेता, अभिनेत्री,अलग- अलग होते हैं। वहाँ सबका काम अलग-अलग होता है।अभिनेताओं/अभिनेत्रियों के मात्र होठ हिलते हैं। स्वर किसी और का होता है।लेखक कोई और होता है।आज गीत औऱ संवाद किसी चिप या रिकॉर्डर में रिकॉर्ड होते हैं। युवक और युवतियां केवल अपने कटि -संचालन से ही सारा श्रेय लूटने की जुगत लगाए रहते हैं।यहाँ उनके देह – संचालन के अतिरिक्त उनका कुछ भी अपना नहीं है।न शब्द, न वाक्य, न गीत , न संवाद,न स्वर,न गला ;निजता औऱ मौलिकता के नाम पर सब कुछ शून्य।यही शार्टकट- संस्कृति है। यही कॉपी ,कट,पेस्ट, रेडीमेड और लघुकाट संस्कृति है।सब कुछ उधार का। सनातन अमर संस्कृति की बखिया उधेड़ता उखाड़ता।आज इसी के घण्टे घनघना रहे हैं।औऱ लोग अपनी नकली प्रतिभा के डंके पिटवा रहे हैं।तुम्हें ढोलक, मंजीरा, हारमोनियम,तबला, सितार, गिटार ,वीणा, यहाँ तक कि चिमटा बजाना भी नहीं आता।हाँ, गाल बजाना अवश्य आता है।
मौलिकता मर चुकी है।नकली कट कॉपी कर ली और पेस्ट कर दी।मात्र धोखा। पर आज तक किसी ने कभी नहीं रोका।यथार्थ धुँआँ -धुँआँ हो रहा है।औऱ आदमी सपरेटा संस्कृति का दूध पी- पीकर पुष्ट हो रहा है।हमें तो लगता है संस्कृति के नाम पर सब गुड़ गोबर हो रहा है।ऐ मानव !तू कहाँ किस खुमारी में सो रहा है।स्वर्ग की तरह पाताल के भी सात स्तर हैं, तू कहाँ किस पाताल की तली में जाकर उसकी शोभा -वृद्धि करेगा, कोई नहीं जानता!
— डॉ.भगवत स्वरूप ‘शुभम्’