दोहा गीतिका – बौरा गए रसाल
होली तो हो ली सखे,फूले किंशुक लाल।
पाटल महके झूमकर,बौरा गए रसाल।।
कोकिल कूके बाग में, कुहू-कुहू की टेर,
चोली कसती जा रही, मन में उठे सवाल।
बाली जौ गोधूम की, नाच रही नित झूम,
पीपल दल के होंठ पर,उभरा लाल गुलाल।
फूल-फूल का रस चखे,तितली नीली पीत,
भँवरे गूँजें मत्त हो, करते विकट धमाल।
आए हैं ऋतुराज जी,पतझर के उपरांत,
कामदेव धनु-बाण ले,आया लेकर जाल।
विरहिन बाट निहारती,आए अभी न कंत,
नींद न आए सेज में,काम रहा है साल।
महुआ महके बाग में,गदराए हैं अंग,
बूढ़े बरगद ने तजी, अपनी बूढ़ी खाल।
ब्रज की झाड़ करील में,मधमासी की भीड़,
लगी होड़ रस चूसने, गूँज – गूँज दे ताल।
चंचल चितवन ने ठगा, यौवन को सुकुमार,
रूप न जाता आँख से, हृदय रहा है साल।
‘शुभम्’ प्रकृति के रूप का,कैसा कायाकल्प,
जड़-चेतन रसलीन हैं,नत हैं नयन विशाल।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’