मन मोर भयौ मथुरा बिंदरावन
-1-
रँग लाल गुलाल उड़े ब्रज में,
डफ ढोल धमाधम बाजत वादन।
चुनरी पट ओढ़ि चली तरुणी,
चलती पिचकारिहु धार सनासन।।
पथ कान्ह मिले गहि बाँह लई,
लिपटाय लई तर अंग मनावन।
चलि कुंजनु खेल करें रस के,
मन मोर भयौ मथुरा बिंदरावन।।
-2-
रस चूसि करै खिलवाड़ अली,
कलिकावलि नाचाति झूमि रिझावति।
तितली उत रंग – बिरंग भई,
रस केलि करै रँग ही बरसावति।।
मधु चाटि पराग लिए उड़ती,
मधुमाखिहु फूलनु से रस लावति।
सरसों अलसी सिहराइ रहीं,
नचि मौनहि वादन गीत सुनावति।।
-3-
कसि तंग भई मम चोलि सखी,
ऋतुराज सताइ रहौ भरि फागन।
पिय भूलि गयौ कहुँ पंथ दई,
हिय चैन नहीं बरसें दृग सावन।।
अलि फूल निहारि उठै हिय में,
अति पीर न औषधि टीस नसावन।
पिक कूकि रही तरसाइ मुई,
वन फूलि पलास करै हिय दाहन।।
-4-
सब आम रहे इतराइ सखी,
झुकि बौरत-बौरत कूकि रिझावत।
पतझार भयौ तरु पीपर पै,
कचनार कली विहँसें शरमावत।।
अपने – अपने बदले कपड़े,
दल लाल गुलाल भए तरु गावत।
तरुणी मटकाइ चले पथ पै,
करि नैन सँकेतनु पास बुलावत।।
-5-
नित काम विदेह अधीर करै,
नव ओप भरें तरुणी तन फागन।
नत सीस भयौ पुरुषारथ है,
रँग रूप नयौ नर को दृग दामन।।
बतराइ रहे अनबोलत वे ,
मधु चाह बढ़ी रस रंग दृढ़ावन।
लिपटाय सप्रेम लता चिपकी,
निज अंक गहें तरु मौन रसालन।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’