एक कैम्पस
सायं सात हो चुका था जब मैं ऑफिस से घर पहुँचा। पत्नी ने मुझे देखकर भी अनदेखी किया। उनके चेहरे के भाव से लगा कि वे कुछ खिन्न मन:स्थिति में हैं। व्यंग्यात्मक अंदाज में वे मुझसे बोली थी, “ऑफिस के सब निपटाकर चले होंगे, है न?” यह उनकी भड़ास थी। मैं समझ गया कि जरूर कोई बात है। मैंने जब उन्हें बताया कि आफिस के बाद एक कार्यक्रम में जाना पड़ा तो उनके भाव नार्मल हुए। श्रीमती जी ने मुझे बताया कि, कल राजेश के यहाँ चलना है मैंने कह दिया है कि हम लोग बारह बजे के बाद आएंगे।” तो यह बात थी जिसे बताने के लिए वे बेचैन हो रही थी। मैंने उत्साहित होकर कहा, ठीक है कल रविवार है छुट्टी के दिन का सदुपयोग भी होगा और जे एन यू कैम्पस भी देख लेंगे। राजेश इनके छोटे भाई मेरे साले साहब हैं। ये जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलॉजी विभाग में प्रोफेसर हैं।
हम ग्रेटर नोएडा-नोएडा एक्सप्रेसवे से लोग निकले। डीएनडी फ्लाईवे और फिर बन्दा सिंह सेतु से शुरू होने वाला जाम महात्मा गांधी रोड और विवेकानन्द रोड पर भी मिलता गया। रविवार और वह भी दोपहर का समय, मतलब कोई पीक आवर्स नहीं। फिर भी यह भीड़। इसमें रोज चलता किसी मानसिक संत्रास से कम नहीं होगा। ट्रेफिक और जाम को देखकर मैंने सोचा था। इसी रास्ते से हम लोग जेएनयू पहुँचे थे।
जेएनयू कैंपस में प्रवेश करते ही दृश्य बदला हुआ मिला। भीड़भाड़ से दूर जैसे प्रकृति के बीच में आ गए थे। टीचर्स आवास की ओर मुड़े। एक गार्ड दिखाई पड़ा। गाड़ी से उतरने को हुआ कि राजेश अपने आवास से बाहर आते दिखाई पड़ गए। पीछे आरती भी थीं। आरती राजेश की पत्नी। राजेश जब जर्मनी, अमेरिका और स्वीडन में अपने रिसर्च कार्य में थे तो आरती भी उनके साथ थीं। यहीं से आरती ने भी अपना एम एस सी पूरा किया था। राजेश ने उन्हें भी पढ़ने के लिए खूब प्रोत्साहित किया था। इसी का परिणाम है कि आज आरती दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर हैं। अध्यापन कार्य में वे भी बहुत मेहनत करती हैं। इन दोनों का एक बेटा अरू है वह भी सौम्य और सुशील है।
चाय पीने के बीच अचानक राजेश ने मुझसे कहा, जीजाजी, अभी हम आपको जेएनयू कैंपस दिखाएंगे। देखिएगा, क्या यह यूनिवर्सिटी बदनाम होने लायक है? इस बात में उनकी वेदना छिपी थी। इधर वर्षा भी शुरू हो चुकी थी। बेमौसम के इस बारिश में भी यहाँ का वातावरण सुहावना हो उठा था। चाय पीने के बाद मैं दरवाजे पर आकर खड़ा हो गया था। चारो तरफ बिखरी हरियाली और पेड़ पौधों के पत्तों से होकर गिरती टपटप बूँदें! इस दृश्य और टपटपाहट की आवाज में मैं जैसे कुछ पल के लिए खो गया था। इस बीच राजेश भी मेरे साथ आकर खड़े हो गए थे।
बारिश रुकी तो भोजन करने के बाद हम यूनिवर्सिटी कैंपस देखने निकले। जो लंबाई और चौड़ाई में लगभग तीन किलोमीटर में फैला है। अरावली पर्वत श्रृंखला की शुरुआत यहीं से है। विश्वविद्यालय का पूरा कैंपस इस पर्वत श्रृंखला पर ही अवस्थित है। यहाँ पत्थर की बड़ी-बड़ी चट्टानें और जंगल किसी हिल स्टेशन पर होने का आभास दे रहा था। दूर तक फैला एक घाटी जैसा स्थान दिखाकर राजेश ने बताया कि कभी यहाँ झील हुआ करती थी। मैंने देखा वहाँ आज घना जंगल है। यहाँ परिसर के जंगल में नीलगाय, सियार और साही जैसे जंतु भी शरण पाते हैं। नीलगाय और सियार को तो मैंने विचरण करते हुए देखा भी। इसी बीच इन वन्य जीवों के लिए खाद्य पदार्थ रखते हुए एक ऑटो वाला दिखाई पड़ा। पता चला कि कुछ प्राध्यापक ही यहाँ वन्य जीवों के लिए खाद्य पदार्थ रखने की व्यवस्था करते हैं। इन प्राध्यापकों में वे होते हैं जो पढ़ने-पढ़ाने के चक्कर में विवाह की उम्र निकल जाने से अविवाहित रह जाते हैं। कोई अन्य पारिवारिक जिम्मेदारी न होने से ये अपने अच्छे खासे वेतन से ऐसे लोकोपकारी कार्यों पर भी खर्च करते हैं।
कैंपस भ्रमण में मैंने अनुभव किया कि यहाँ के भौगोलिक पारिस्थितिकीय तंत्र से कोई छेड़छाड़ नहीं हुई है। पेड़-पौधे और झाड़ियां तथा तमाम भू-आकृतियां सभी अपने प्राकृतिक मूल अवस्था में ही दिखाई पड़े। इससे पता चलता है कि विश्वविद्यालय के निर्माण में प्रकृति के साथ संवेदनशीलता बरती गई है। यहाँ तक कि भवनों के नीँव से सटे वृक्ष भी जस के तस अपने पुराने रूप में आज भी खड़े हैं।
राजेश ने मुझे भाषा साहित्य एवं संस्कृति अध्ययन संस्थान, पर्यावरण विज्ञान संस्थान, स्कूल आफ सोशल साइंसेज, स्कूल आफ इन्टरनेशनल स्टडीज जैसे अध्ययन केन्द्रों को भी दिखाया। जगह-जगह इनके दीवारों पर पोस्टर और श्लोगन लिखे दिखाई पड़े। डा बी आर अम्बेडकर सेंट्रल लाइब्रेरी में तो इस रविवार के दिन भी सैकड़ों की संख्या में छात्र अध्ययनरत मिले। विश्वविद्यालय के इस परिवेश में पढ़ने और नई बातों को सीखने और इन पर बहस का जूनून हवा में तैरता जान पड़ा। मैंने अनुभव किया कि दीवारों पर लगे पोस्टर इसी जूनून का हिस्सा है। लेकिन मीडिया संस्थान और बाहरी तत्व इन पोस्टरों और नारों में रुचि लेकर विश्वविद्यालय को विवाद का हिस्सा बना देते है। यही बात विश्वविद्यालय के उस गार्ड से मैंने पूँछा था। जब बोगनबेलिया के खूबसूरत फूलों के मध्य गुजरते विश्वविद्यालय के एक रास्ते की तस्वीर मैं लेने लगा था। वह गार्ड मेरे पास आया और फोटो लेने का तरीका बताया जिससे तस्वीर सुंदर आए। तब मैंने उससे पूँछा था कि क्या आपको नहीं लगता कि इस विश्वविद्यालय को नाहक ही बदनाम किया जाता है? गार्ड को ऐसे प्रश्न की उम्मीद नहीं थी और किसी ने उससे ऐसा प्रश्न भी नहीं किया होगा। इसलिए उसने विस्मित होकर मुझे निहारा और फिर बोला था, हाँ यह तो है, बस बाहरी लोगों को यहाँ नहीं आने देना चाहिए, इन्हें (छात्र) आपस में ही निपटने देना चाहिए। गार्ड ने सच बोला था। इस मामले में मेरी भी राय यही है। उसके साथ मैंने एक सेल्फी भी ली। सेल्फी में मेरी मुस्कुराहट बनावटी नहीं स्वाभाविक थी।
विचार से लड़ने के लिए विचार ही चहिए। विश्वविद्यालय में वैचारिक अभिव्यक्ति वाले पोस्टर की लड़ाई पोस्टर से ही लड़ी जानी चाहिए, और छात्र ही इसे लड़ सकते हैं। वैसे ये पोस्टर किसी वैचारिक क्रांति के अगुआ नहीं जान पड़े। मेरी समझ से नेता और मीडिया केवल अपने टीआरपी के लिए बीच में कूदकर वितंडावाद खड़ा करते हैं। मैं अभी इन बातों में खोया था कि फोन की घंटी भी बजी थी। फोन एक सहपाठी का था। मैंने उन्हें बताया कि जेएनयू कैंपस में हूँ तो राज्य के प्रति मेरी निष्ठा पर वे संदेह कर बैठे। उनकी बात पर मेरी हँसी छूट गई थी। मेरे मत में, बातों के पीछे इस तरह क्रोनोलॉजी खोजना निरर्थक है, और ये बातें हैं इन बातों का क्या!
यहाँ से चलकर विवेकानंद की मूर्ति भी देखी। जिसे नेहरू की मूर्ति के सामने कुछ दूर लगाया गया है। बहुत दिनों से नेहरू के मूर्ति की सफाई न होने से इसपर काई जमी थी। मुझे यह सोचकर अजीब लगा कि क्या किसी क्रोनोलॉजी के डर से इस मूर्ति की सफाई नहीं हुई है? मैंने नेहरू की मूर्ति के चबूतरे पर लगे पत्थर में खुदे अक्षरों को पढ़ा जिसमें इस विश्वविद्यालय के स्थापना के पीछे के उद्देश्य को व्यक्त किया गया है। ‘एडवेंचर ऑफ आइडियाज’ के लिए ‘सर्च ऑफ ट्रुथ’ शब्द पर मेरा ध्यान गया। इसे पढ़कर मैंने सोचा काश कि कोई एडवेंचर दिखाए और कम से कम मुँह अँधेरे ही नेहरू जी के मूर्ति की सफाई का नेक काम कर जाता! वैसे तो विचार शाश्वत होते हैं लेकिन समय के साथ इनके मूल्य बदलते रहते हैं और जो विचार उपयोग में नहीं होते उनपर इसी तरह काई जमती चली जाती है और धीरे-धीरे ये ओझल हो जाते हैं। हालांकि वैचारिक मूल्यों के उतार-चढ़ाव और क्रोनोलॉजी खोजे जाने के इस युग में, इससे बेपरवाह राष्ट्रीय ध्वज यहाँ निडरता से लहराता दिखाई दिया।
फिर मैं उस स्थान को देखकर मुस्कुरा उठा जहाँ तथाकथित टुकड़े-टुकड़े गैंग ने कभी नारा लगाया था। यहाँ खड़े होकर मैंने सोचा, राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में आज भारत 1947 से ज्यादा मजबूत और एक है। 1947 के आगे-पीछे के वर्षों में हम आजादी के आदर्शवादी विचारों में ही खोए थे। इस कारण तब हमारे पास तर्क के अवसर भी कम होते। क्योंकि आदर्शवाद में एकरसता होती है और जिसमें बहस की गुंजाइश न के बराबर होती है अन्यथा उस समय “पाकिस्तान” के विचार पर व्यापक बहस होता और शायद यह विचार अस्तित्व में ही न आ आता। इसीलिए मेरा मानना है कि विचारों के विविध रंगों पर बहस भी होनी चाहिए। भारतीयता और भारतीय एकता का यही मूलाधार है।
यहाँ से राजेश मुझे अपने डिपार्टमेंट स्कूल ऑफ बायोटेक्नोलॉजी में ले गए। छुट्टी के दिन भी एक शोधार्थी छात्र को लैब में काम करते देख मुझे आश्चर्य हुआ। राजेश ने बताया कि इसके पहले उनका एक छात्र शोधकार्य पूरा करके अमेरिका जा चुका है। वैसे जहाँ तक मुझे पता चला है आजकल विश्व के कुल शोधकार्य में भारत के योगदान के प्रतिशत में वृद्धि हुई है।
अंत में मेरा मानना है कि अपने विशुद्ध रूप में प्रकृति कभी भी विभाजन को स्वीकार नहीं करती बल्कि समग्रता के साथ सहअस्तित्व में विश्वास करती है। भारत को प्रकृति ने बनाया है। और यहाँ विश्वविद्यालय के कैंपस में विचरण करते हुए मैं कह सकता हूँ कि विश्वविद्यालय के इस प्राकृतिक मनोरम परिवेश से कभी भी विभाजन के विचार नहीं निकल सकते।