कविता

हास्य व्यंग्य कविता – महंगाई

छूटे सारे शौक घटती कमाई मार गई
भूले सारे स्वाद रसोई की रुलाई मार गई
कुछ न पूछो दोस्तों कि हमको क्या हुआ
हमको तो निगोड़ी महंगाई मार गई
नित बढ़ते सारे टैक्स की अदाई मार गई
अपना घर भरते नेताओं की बेहयाई मार गई
हमें ख़ुद समझ न आए कि हमको क्या हुआ
हमको तो निगोड़ी महंगाई मार गई
खत्म हुआ कोरोना तो युद्धों की लड़ाई मार गई
बढ़ती रईसी मुफलिसी की ये खाई मार गई
पूछे आज हर कोई हमसे कि तुमको क्या हुआ
हमको तो निगोड़ी ये महंगाई मार गई
बिगड़ते हुए बजट की रुसवाई मार गई
महंगे पेट्रोल डीजल गैस की चतुराई मार गई
अब क्या बताए किसी को कि हमको क्या हुआ
हमको हाय निगोड़ी महंगाई मार गई
बढ़ते फैशन घटते संस्कार की दुहाई मार गई
बच्चों को मिशन बुनियाद की पढ़ाई मार गई
अब तो समझ गए न कि हमको क्या हुआ
हां हमको यही निगोड़ी महंगाई मार गई
नित बढ़ रहे प्रदूषण की अकुलाई (मन:स्थिति) मार गई
कटते रोज़ जंगलों की चीख ओ चिल्लाई मार गई
न पूछो हालत हमारी अब हुआ जो हुआ
बेरहम निगोड़ी हमको महंगाई मार गई
छूटे काम धंधे बेरोजगारी की वफ़ाई मार गई
भूखे बिलखते मजदूरों की कुलबुलाई(व्याकुलता) मार गई
बस हम न कह सकेंगे अब कि हमको क्या हुआ
बेदर्द निगोड़ी हमको महंगाई मार गई
— पिंकी सिंघल

पिंकी सिंघल

अध्यापिका शालीमार बाग दिल्ली