भोंदूराम (हास्य कविता)
हाथ में लेकर झोला-झंटा, घर से निकले भोंदूराम,
पत्नी ने बोला था जाओ, ले आना दस मीठे आम.
चैन से बैठना उसे सुहाता, कब भाता था उसको काम!
अब तो भैया मजबूरी थी, पत्नी का आदेश ललाम.
घर से निकले भोंदू भाई, वहां मिल गया तोंदू नाई,
“कहो आज कहां जाते हो भाई, बहुत दिनों में दिए दिखाई.”
“चैन कहां अपनी किस्मत में, बीवी ने बोला है काम,
जाता हूं बाजार ठुमककर, ले आने हैं दस आम.
मेरी मजबूरी मत पूछो, आम नहीं ‘गर मैं ला पाया,
खाट खड़ी कर देगी मेरी, घर से भी जाऊंगा निकाला.”
पहुंचे चौक में भोंदूराम, दिए दिखाई कहीं न आम,
एक दुकान पे भीड़ बड़ी थी, टिकट खरीद रहे लोग तमाम.
भोंदू ने भी एक टिकट ली, सोचा “निकलेगा बड़ा इनाम,
फिर तो बीवी खुश ही होगी, चाहे पहुंचूं लिए बिन आम.”
घर पहुंचा तो बीवी बोली, “कहो कहां पूरे दस आम!”
भोंदू जी लगे खीसें निपोरने, “हें-हें निकलेगा बड़ा इनाम.”
“ऐसी की तैसी इनाम की, अभी निकालती हूं बड़ा इनाम!
हिम्मत कैसे हुई तुम्हारी, बिना लिए घर लाए आम!”
इतने में कुछ शोर मचा था, “कहां छिपे हो भोंदूराम,
गाड़ी एक बड़ी आई है, शायद निकला बड़ा इनाम.”
भोंदूराम की निकल पड़ी थी, रकम मिली जो बहुत बड़ी थी,
बीवी ने आरती सजाई, लिए मिठाई खुश वो खड़ी थी.
“आज तो काम का काम किया है, वाह रे मेरे भोंदूराम,
मूर्ख न अब कोई तुम्हें कहेगा, “मूर्ख दिवस” का मत लो नाम.”