ग़ज़ल
मैं जिसे ढूँढ रहा हूँ कहीं मिलेगी ही
दरिया पार करो तो ज़मीं मिलेगी ही
सितारे होंगे मेहरबान कभी हम पर भी
कभी तो कोई हमें महजबीं मिलेगी ही
बहार फिर से खिला देगी ये गुलशन सारे
बाद पतझड़ के देख रूत हसीं मिलेगी ही
घर से निकला हूँ खुशियां बांटने को मैं
पता था राह में दुनिया गमगीं मिलेगी ही
इस बुरी दुनिया में जुर्म-ए-अज़ीम है नेकी
करोगे तो तुम्हें सज़ा संगीं मिलेगी ही
— भरत मल्होत्रा