बोहनी-बट्टा
चिल्ला जाड़ा , दस बजत हुँइहैं , सूरज नारायण जाने कित बिलाय बैइठे हैं , हाड़ -हाड़ कँपत हैं। आज गोरु होत तो हम का सत्तर की उमर मा रिक्सा खेंच रये होत? जवान जहान बिटवा भगवान उठाय लिहिस। सब प्रभु लीला।
“ए, रिक्शा, पहाड़िया पे जो देवी मंदिर है, उसके पास, महादेव नगर चलना है।”
“महादेव नगर! हम नाम नहीं सुना।
“मंदिर के पास ही है, हम बता देंगे।
“चलो साहेब।”
“कितना लोगे ?”
“सौ रूपईया।”
“अंधेर है क्या? ठीक-ठीक बताओ।”
“चढ़ाई है मालिक। आप दस बीस कम दे दियो।”
“पचास, इससे एक रुपया भी ज्यादा नहीं।”
“बइठो, बोहनी बट्टे का समय है,का कहें।”
——
“रुको, अब यहाँ मंदिर तक आयें हैं तो देवी के दर्शन कर लें। तुम ठहरो यहाँ हम पाँच मिनिट में आतें हैं।”
“हौ, जल्दी आना मालिक।”
—-
“बहुत देर से खड़े हो इहाँ। हम तो दो चक्कर लगा लिये इहाँ के। बाट जोह रहे हो का दादा,काहू की?”
“हाँ वो एक मोटे से, ठिगने, काले,साहेब —–।”
“अरे वो मोटा —वो न लौटे अब। —-चढ़ाई पार कर ली और गरीब की बोहनी पर बट्टा फेर गया।”
— सुनीता मिश्रा