सामाजिक

निरंकुश उन्मुक्तता को कैसे थामें

धर्म और संस्कार की नींव पर खड़ा हिंदुस्तानी समाज एक तहजीब और संस्कारी,शिष्ट गिना जाता रहा हैं।एक मर्यादा वाले समाज को नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण के नाम से अमर्यादित राहों पर  आयोजन पूर्वक उन सुलक्षणों से बाहर निकाल नैतिक पतन की और जबरन घसीटा जा रहा हैं।क्या दोस्ती के नाम पर लड़कों से शारीरिक संबंध रखना वाजिब हैं? जिससे वह दोनों उन्मूमुक्त महीनों के या सालों के लिए  साथ रह दूूसरे की तलाश  में निकल पड़ते हैं।उन्हे आधुनिक बनजारें कहा जाना चाहिए।लेकिन बंजारों में भी कुछ  नियम कानून हुआ करते हैं। सेक्स को प्राधान्य दिया जाने लगा जो प्रवृत्ति पशुओं में भी नहीं हैं ( पशुओं में संवानन काल में ही नर और नारी पशु मिलते हैं )उसे मानव में उजागर करने के लिए फिल्म,सम्यिकों अब तो टीवी और ओ टी टी प्लेटफार्म का उपयोग किया जा रहा हैं।यहां तक कि विज्ञापनों में भी यही कुछ दखया जा रहा हैं। विज्ञापन चाहे किसी चीज का हो उसमें छोटे कपड़े़ों वाली लड़की का होना आवश्यक बी बन जाता हैं।जहां नशा बेफाम,सेक्स बेफाम,बड़ों की इज्जत न कर उनसे जबान लडानी आदि सब (श्श्व्य)श्रव्य और दृश्य माध्यमों से दिन रात देखने के बाद अपने युवा और बच्चे क्या सिख पाएंगे ये सोच दिल दहल जाता हैं।

विवाह जैसे सामाजिक संस्कार और कौटुंबिक व्यवस्था की खुल्ले आम धज्जियां लिव इन रिलेशनशिप के तहत उड़ाई जा रही हैं। कौन और कैसे बचा पाएगा अपने संस्कार और शिस्त को इस पतन से।उन्मुक्तता तो मन की संयमित भावनाओं को कहा जा सकता हैं।नहीं कि बदचलनी के आलम को।
इस अवनीति को रोकने के लिए माता पिता खुद को अपने आप को बदलना पड़ेगा।संयुक्त परिवार ने रह कर बच्चों को दादा दादी के प्यार भरे अनुशासन में बढ़ने से संस्कारों का निरूपण हो पाएगा।खुद को स्वतंत्र रहना हैं तो बच्चें  स्वच्छंद ही बनेंगे।
थोड़ा धर्म ध्यान करने वालें भी धर्म में कही बातों को लक्ष में रख खुद ही स्वनियंत्रित रह पाएंगे।

— जयश्री बिर्मि

जयश्री बिर्मी

अहमदाबाद से, निवृत्त उच्च माध्यमिक शिक्षिका। कुछ महीनों से लेखन कार्य शुरू किया हैं।फूड एंड न्यूट्रीशन के बारे में लिखने में ज्यादा महारत है।