कविता

प्रकृति की है खेल निराली

प्रकृति की है सब खेल निराली
कुछ है भरा पूरा कुछ है  खाली
हर सुबहा की यहाँ होती है शाम
अंधेरी रात के बाद आती  बिहान

गरमी से तन मन है अब    हारा
वर्षा ने वन उपवन को    संवारा
ठंडा का मौसम अति है लुभावनी
सूरज की किरण लगती है  सुहानी

बारिस ने पहाड़ो को है।      नहलाया
नदियों की बाढ़ ने जन जन को रूलाया
गाँव बहियार जल में सब कुछ डूबोया
आटा चावल सब घर से है      लुटाया

पछुवा हवा की झौंका जब जब   आता
लू व गर्म हवा तन मन को नहीं    भाता
पूर्वाई जब लेती वायु मंडल में अंगड़ाई
उमस की वातावरण कष्ट में      सजाई

ऋतुओं में छः बड़े बड़े हुए यहाँ  राजा
पर ऋतुराज बसंत कहलाता महाराजा
फूल खिले तब गुलशन  दर   गुलशन
जवाँ कलियों से हॅसता वन    उपवन

रात काली अंधेरी पर दिन है उजाला
बेईमानों के घर में लटका है।    ताला
सच यहाँ चोर कहलाता है मेरे साईँ
चोर के सिर मोर सजता है मेरे भाई

— उदय किशोर साह

उदय किशोर साह

पत्रकार, दैनिक भास्कर जयपुर बाँका मो० पो० जयपुर जिला बाँका बिहार मो.-9546115088