“केवल यादें बची, परिन्दे किधर गये”
गीत “केवल यादें बची, परिन्दे किधर गये”
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उजड़ गया वो बाग, माली गुजर गये।
केवल यादें बची, परिन्दे किधर गये।।
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कहाँ गये वो लोग, जिन्होंने चमन सजाये,
कहाँ गये वो खेत, जहाँ पर पेड़ लगाये,
पुरखों के आधार, जाने किधर गये।
केवल यादें बची, परिन्दे किधर गये।।
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रिश्तों में खो गया, सन्तुलन प्यार का,
सारहीन हो गया, सूत्र परिवार का,
खुशियों के अंबार, जाने किधर गये।
केवल यादें बची, परिन्दे किधर गये।।
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खोज रही सन्तान, हाथ उपहार का,
युग आया है आज, सिर्फ मनुहार का,
तीज और त्यौहार, जाने किधर गये।
केवल यादें बची, परिन्दे किधर गये।।
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नहीं रहा नैसर्गिक, ढाँचा प्यार का,
बिगड़ गया है ढंग, प्रणय-अभिसार का,
मर्य़ादा के तार, जाने किधर गये।
केवल यादें बची, परिन्दे किधर गये।।
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मटियामेट किया किसने, पंचम अक्षर आकार का,
लुप्त हुआ अस्तित्व, चन्द्रबिन्दु जैसे अनुस्वार का
स्वर वीणा झंकार, न जाने किधर गये।
केवल यादें बची, परिन्दे किधर गये।।
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)