गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

ठोकरें भी रोज़ खाती ज़िंदगी
सोचती ही देख जाती ज़िंदगी

छू सकें ये आसमां बढ़ते कदम
देख तब राहें दिखाती ज़िंदगी

कट गये जो पंख फिर भी देखना
देर कुछ ही फड़फड़ाती ज़िदगी

हर खुशी से था चहकता दिल यहाँ
आँख भर – भर के बताती ज़िंदगी

आँधियों में सब उजड़ता ही गया
आज तन्हाई बढ़ाती ज़िंदगी

काटते चलते बने ले वृक्ष सभी
पंछियों को अब सताती ज़िंदगी

बेरहम सब ही बने देखो यहाँ
अब लहू सबका बहाती ज़िंदगी

मंज़िलें हों पास पर पहुँचें नहीं
हादसा ही तो बनाती ज़िंदगी

जो जताया प्यार तूने ये लगा
रूप सुंदर आज भाती ज़िंदगी

अड़चनें आयें कभी जो राह में
जीतकर भी हार जाती जिंदगी

ख़ूं निकलता दर्द होता ही रहा
ज़ख़्म की है आग जलती ज़िंदगी

— रवि रश्मि ‘अनुभूति’