ग़ज़ल
जो मेरे सीने में धड़कन की तरह बसता रहा,
मैं उसे ही मिलने को ता-उम्र तरसता रहा
धूप में जलती रहीं फसलें कहीं पर खेत में,
और कोई घर कहीं पर बाढ़ में बहता रहा
ढूँढता बचपन रहा एक-आध रोटी कचरे में,
गेहूँ पड़ा-पड़ा किसी गोदाम में सड़ता रहा
जल गया जो आग में बस्ती की खुशनसीब था,
बच गया जो पेट की वो आग में जलता रहा
रोज़ शाम आती रही बारात लेकर गमों की,
रोज़ दिल नादान दुल्हन की तरह सजता रहा
होगा मेरा वजूद ही शायद से चंदन की तरह,
ज़िंदगी में जो मिला मुझको वही डसता रहा
— भरत मल्होत्रा