रहता हूँ अँधेरें में,आफताब बेचता हूँ।
सह के काँटों की चुभन, मैं गुलाब बेचता हूँ।
जाहिल हूँ, बचपन बीता, इन्हीं फुटपाथों पे,
मगर इल्म ओ हुनर की मैं किताब बेचता हूँ।
जब कुछ भी नही बचता है मेरे दामन में,
बाजार में,मैं अपना इमान जनाब़ बेचता हूँ।
सागर की हर लहर उम्मीद जगाती है,
मैं नाबीना आँखों को हसीन ख्वाब बेचता हूँ।
कितने बेबस है, आज ये पत्थर के देवता,
मन्दिर के पिछवाड़े, मैं शराब बेचता हूँ।
— ओमप्रकाश बिन्जवे “राजसागर”