कविता

विलाप

रात के सन्नाटे को चीरती
चातक पक्षी का क्रंदन
है हृदय को वेदांती
जाने क्या पीड़ा है उसकी ?
बिछड़ा हो कोई प्रिय
या प्रियजन पर आई है दुःख भारी
अपनी पीड़ा से हो अधीर
क्रंदन करती है गंभीर!
क्रंदन का स्वर हुआ कुछ सघन
अधीर हो फिरे यहां-वहां
रात के सन्नाटे में
राहत की कोई आस नहीं
विलाप का स्वर ही गूंजे चंहू ओर!
चातक की विलाप सुनकर
हृदय अपना डूबा जाता है
दुःख क्या है? इस पक्षी को
जानने को मन अकुलाता है
इस अकुलाहट में
मैं निकला खुले आंगन में
कुछ न सूझे इस घुप अंधेरे में
बस विलाप ही गूंजे हर दिशा में!
तभी दूर कहीं कोई पक्षी स्वर गूंजा
विलाप हुआ कुछ मद्धम
लुप्त होने लगा विलाप
थम सा गया कोलाहल
मानो बिछड़ा प्रियतम
गया है उसे मिल ……….!
— विभा कुमारी “नीरजा”

*विभा कुमारी 'नीरजा'

शिक्षा-हिन्दी में एम ए रुचि-पेन्टिग एवम् पाक-कला वतर्मान निवास-#४७६सेक्टर १५a नोएडा U.P