स्वास्थ्य

स्वास्थ्य के लिए स्वावलम्बन का महत्त्व

दुनिया में चेतनाशील प्राणियों में मानव का प्रतिशत तो एक प्रतिशत से भी कम होता है। बाकी 99 प्रतिशत जीव अनादि काल से सहज जीवन जी रहे हैं, जिन्हें किसी भी प्रकार की चिकित्सा पद्धति का न तो कोई ज्ञान होता है और न अनुभवी चिकित्सकों का सान्निध्य ही मिलता है। क्या वे रोगी नहीं होते? वे पुनः स्वस्थ कैसे होते हैं? दूसरी तरफ स्वच्छ वातावरण में रहने वाले, पौश्टिक आहार का सेवन करने वाले, चिकित्सक के परामर्श अनुसार जीवन जीने वाले भी रोगी हो जाते हैं। आखिर क्यों?
सुखी जीवन के लिए अच्छा स्वास्थ्य आवश्यक
प्रत्येक व्यक्ति जीवन पर्यन्त स्वस्थ एवं सुखी रहना चाहता है। कोई भी रोगी बनना नहीं चाहता। परन्तु चाहने मात्र से तो स्वास्थ्य, शान्ति और समाधि नहीं मिल सकती। सुखी जीवन के लिए सिर्फ शरीर का होना ही काफी नहीं होता, अपितु शरीर का स्वस्थ, नीरोग और ऊर्जायुक्त होना भी आवश्यक है। अनेक व्यक्ति बाह्य रूप से बलिष्ठ, पहलवान जैसे दिखने के बावजूद कभी-कभी असाध्य रोगों से पीड़ित पाए जाते हैं, जबकि इसके विपरीत कभी-कभी बाह्यदृष्टि से दुबले-पतले दिखने वाले कुछ व्यक्ति मोटे-ताजे दिखने वाले व्यक्तियों की अपेक्षा ज्यादा मनोबली, आत्मबली और स्वस्थ हो सकते हैं।
स्वावलम्बी चिकित्सा कितनी सरल
जिस प्रकार हम साल के 365 दिनों में अपने घरों में बिजली के तकनीशियन को प्रायः 8 से 10 बार से अधिक नहीं बुलाते। 355 दिन जैसे स्विच चालू करने की कला जानने वाला बिजली के उपकरणों का उपयोग आसानी से कर सकता है। हमें यह जानने की आवश्यकता नहीं होती कि बिजली का आविष्कार किसने, कब और कहाँ किया? बिजलीघर से बिजली कैसे आती है? कितना वोल्टेज, करेन्ट ओर फ्रिक्वेन्सी है? मात्र स्विच चालू करने की कला जानने वाला उपलब्ध बिजली का उपयोग कर सकता है। मोबाइल का उपयोग करने वालों को बातचीत करने हेतु मोबाइल के सभी पुर्जो की जानकारी आवश्यक नहीं होती। ठीक उसी प्रकार साधारण परिस्थितियों में स्वस्थ रहने हेतु जनसाधारण को शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी की आवश्यकता नहीं होती। विभिन्न चिकित्सा पद्धतियों की ऐसी साधारण जानकारी से व्यक्ति न केवल स्वयं अपने आपको स्वस्थ रख सकता है, अपितु असाध्य से असाध्य रोगों का बिना किसी दुश्प्रभाव प्रभावशाली ढंग से उपचार भी कर सकता है।
शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता होती है
प्रत्येक अच्छे स्वचलित यंत्र में खतरा उपस्थित होने पर स्वतः उसको ठीक करने की व्यवस्था प्रायः होती है। जैसे बिजली के उपकरणों की सुरक्षा हेतु ओवरलोड, शार्ट सर्किट, अर्थ फाल्ट रिले, फ्यूज आदि। प्रत्येक वाहन में ब्रेक होता है ताकि आवश्यकता पड़ने पर वाहन की गति को नियंत्रित किया जा सके। ठीक उसी प्रकार मनुष्य का शरीर जो दुनियाँ की सर्वश्रेष्ठ स्वचलित, स्वनियंत्रित मशीन जैसी है, उसमें रोगों से बचने की सुरक्षात्मक व्यवस्था न हो तथा रोग होने की अवस्था में पुनः स्वस्थ बनाने की व्यवस्था न हो, कैसे सम्भव हो सकता है? आवश्यकता है, हमें स्वयं की क्षमताओं को जानने की, समझने की तथा स्वविवेक, धैर्य, सहनशीलता एवं सद्बुद्धि द्वारा उसका सही उपयोग करने की। हम जानते हैं कि स्वचलित उपकरणों में जितनी ज्यादा अनावश्यक छेड़-छाड़ की जाती है उतनी उसके खराब होने की सम्भावनाएँ बढ़ जाती हैं। अतः उपचार अथवा रोगों के बचाव के नाम पर शरीर के साथ यथासंभव अनावश्यक छेड़-छाड़ नहीं की जानी चाहिए।
शरीर में आपसी तालमेल कितना अच्छा?
चलने-फिरने में कश्ट का अनुभव करने वाले व्यक्ति मरणांतिक संकट उत्पन्न होने पर कैसे दौड़ने लगते हैं? यदि हमारे शरीर के किसी भाग में कोई तीक्ष्ण वस्तु जैसे पिन, सूई, काँटा आदि चुभ जाए तो सारे शरीर में छटपटाहट होने लगती है। आँखों में से पानी आने लगता है, मुँह से चीख निकलने लगती है। शरीर की सारी इन्द्रियाँ और मन अपना कार्य रोककर क्षण भर के लिए उस स्थान पर केन्द्रित हो जाते हैं। उस समय न तो मधुर संगीत सुनना ही अच्छा लगता है और न मनभावन सुन्दर दृश्यों को देखना। न हँसी मजाक अच्छी लगती है और न अपने प्रियजन से बातचीत अथवा अच्छे से अच्छा खाना-पीना आदि। शरीर का पूरा प्रयास सबसे पहले उस चुभन को दूर करने में लग जाता है। जैसे ही चुभन दूर होती है, हम राहत का अनुभव करते हैं। कहने का तात्पर्य यही है कि चाहे चुभन हो या आंखों में कोई बाह्य कचरा चला जाए अथवा भोजन करते समय गलती से भोजन का कोई अंश भोजन नली की बजाय श्वास नली में चला जाए तो शरीर तुरन्त प्रतिक्रिया कर उस समस्या का प्राथमिकता से निवारण करता है।
शरीर में स्वयं स्वस्थ होने की क्षमता होती है
हम देखते हैं जब किसी व्यक्ति की हड्डी अपना स्थान छोड़ देती है, तो डॉक्टर उसको ठीक स्थान पर पुनः स्थित कर छोड़ देता है। जोड़ने का कार्य तो शरीर स्वयं ही करता है। शरीर अपने लिए आवश्यक अवयवों का निर्माण स्वयं करता है। माँ के गर्भ में जब बच्चे का विकास होता है तो पूरे शरीर का निर्माण स्वयं शरीर के द्वारा ही होता है। ये सभी तथ्य हमें सोचने अथवा चिन्तन करने के लिए प्रेरित करते हैं कि शरीर में स्वयं को स्वस्थ रखने की क्षमता अवश्य होनी चाहिए।
सजग व्यक्तियों को अपने रोग के कारणों की जितनी सूक्ष्मतम जानकारी होती है उतनी किसी भी चिकित्सक को नहीं हो सकती। शरीर में हजारों रोग होते हैं, जिन्हें रोगी अभिव्यक्त नहीं कर सकता। जितने रोगों को अभिव्यक्त कर सकता है, वे सभी के सभी शारीरिक, मानसिक, भावात्मक रोग चिकित्सक अथवा आधुनिक यंत्रों और रासायनिक परीक्षणों की पकड़ में नहीं आ सकते एवं जो उनकी पकड़ में आ जाते हैं, उन सभी को डॉक्टर समझ नहीं पाते। सभी अपना अलग-अलग निष्कर्ष निकाल निदान करते हैं।
स्वस्थ रहना स्वयं के हाथ
अच्छे स्वास्थ्य की चर्चा और चिन्तन करने से पूर्व हमें यह जानना और समझना आवश्यक है कि अच्छा स्वास्थ्य किसे कहते हैं? स्वास्थ्य का सम्बन्ध प्रत्यक्ष-परोक्ष किससे होता है? स्वास्थ्य बिगाड़ने वाले विविध कारण क्या हो सकते हैं? उनसे यथासंभव कैसे बचा जा सकता है?
स्वास्थ्य सम्बन्धी सामान्य प्राकृतिक नियमों का ज्ञान न होना और उसके विपरीत आचरण करना अधिकांश रोगों का एक प्रमुख कारण होता है। प्रकृति किसी भी ज्ञानी या अज्ञानी को नियम के विरुद्ध कार्य करने के लिए क्षमा नहीं करती। वहाँ अज्ञानता का कोई बहाना नहीं चलता। अग्नि स्पर्श करने वाले को जलायेगी। यह उसका स्वभाव है। कभी-कभी बहुत छोटी लगने वाली हमारी गलती अथवा उपेक्षावृत्ति भी भविश्य में रोग का बहुत बड़ा कारण बन जीवन की प्रसन्नता, आनन्द सदैव के लिए समाप्त कर सकती है। मृत्यु के लिए सौ सर्पो के काटने की आवश्यकता नहीं होती। एक सर्प का काटा व्यक्ति भी कभी-कभी मर सकता है। परन्तु आज स्वास्थ्य का परामर्श देते समय अथवा रोगी का निदान और उपचार करते समय तुरन्त राहत देने हेतु भविश्य में दुश्प्रभाव उत्पन्न करने वाले तथ्यों का अधिकांश चिकित्सक समग्रता से विश्लेशण नहीं करते।
क्या हमारी श्वास अन्य व्यक्ति ले सकता है? क्या हमारा निगला हुआ भोजन दूसरा व्यक्ति पचा सकता है? क्या हमारी प्यास किसी अन्य व्यक्ति के पानी पीने से शान्त हो सकती है? क्या हमारा दर्द, पीड़ा, वेदना हमारे परिजन ले सकते हैं? प्रायः रोग के प्रमुख कारण रोगी के स्वयं की असावधानी से पैदा होते हैं? अपनी स्थिति से जितना हम स्वयं परिचित होते हैं, दूसरा उतना परिचित हो नहीं सकता। यंत्र और रासायनिक परीक्षण तो मात्र शरीर में होने वाले भौतिक परिवर्तनों को बतलाने में तनिक सहायता कर सकते हैं। आसपास का प्रदूषित वातावरण, पर्यावरण, अशुद्ध भोजन सामग्री, पानी और वायु रोगों का कारण हो सकते हैं। परन्तु शरीर की रोग प्रतिरोधक क्षमता ठीक हो तो बाह्य कारण अकेले रोगग्रस्त नहीं बना सकते। अधिकांश रोग व्यक्ति के स्वयं की गलतियों से पैदा होते हैं। स्वास्थ्य को बनाए रखने तथा रोग होने पर पुनः स्वस्थ होने के लिए रोगी की सजगता, भागीदारी, सम्यक् चिन्तन और पुरुषार्थ का सर्वाधिक महत्त्व होता है।
स्वास्थ्य के लिए हमारे शरीर में समाधान हैं, प्रकृति में समाधान हैं, वातावरण में समाधान हैं, भोजन, पानी और हवा के सम्यक् उपयोग और विसर्जन में समाधान हैं। समाधान भरे पड़े हैं, परन्तु उस व्यक्ति के लिए कोई समाधान नहीं है, जिसमें अविवेक और अज्ञान भरा पड़ा है।
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियों के सिद्धान्त
शरीर में रोग के अनुकूल दवा बनाने की क्षमता होती है और यदि उन क्षमताओं को बिना किसी बाह्य दवा और आलम्बन विकसित कर दिया जाता है तो उपचार अधिक प्रभावशाली, स्थायी एवं भविष्य में पड़ने वाले दुष्प्रभावों से रहित होता है। शरीर का विवेक पूर्ण सजगता के साथ उपयोग करने की विधि स्वावलम्बी जीवन की आधारशिला होती है। मानव की क्षमता, समझ और विवेक जागृत करना उसका उद्देश्य होता है। उपचार में रोगी की भागीदारी मुख्य होती है। अतः रोगी उपचार से पड़ने वाले प्रभावों के प्रति अधिक सजग रहता है, जिससे दुष्प्रभावों की सम्भावना प्रायः नहीं रहती। ये उपचार बालक, वृद्ध, शिक्षित-अशिक्षित, गरीब-अमीर, शरीर विज्ञान की विस्तृत जानकारी न रखने वाला साधारण व्यक्ति भी आत्मविश्वास से स्वयं कर सकता है।
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों को भले ही शरीर के प्रत्येक अंग अथवा अवयव की सूक्ष्म जानकारी न भी हो, फिर भी अधिकांश स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ सम्पूर्ण शरीर को एक इकाई मान एवं आत्मिक अनुभूतियों की उपेक्षा नहीं करती। रोग का कारण रोगी की अप्राकृतिक जीवन शैली में ही ढूँढ़ उपचार करती है। शरीर के विभिन्न अंगों का गहनतम शोध करना गलत नहीं, उसका बहुत महत्त्व है, उपयोगिता और आवश्यकता है, परन्तु उससे भी ज्यादा जरूरी, प्राथमिक और महत्त्वपूर्ण मन एवं आत्मा की शक्तियों पर ध्यान देना परम आवश्यक है। तुरन्त राहत के नाम पर उसकी उपेक्षा कहाँ तक उचित है? स्वच्छ कपड़े पहनकर आभूषण पहनने से शरीर की शोभा काफी बढ़ जाती है। फटे-पुराने अथवा गन्दे कपड़ों पर आभूषण शोभा नहीं देते। बिना कपड़े आभूषण पहनने वालों को मूर्ख अथवा पागल कहते हैं। उपचार के नाम पर भक्ष्य-अभक्ष्य का विवेक न रख, आत्मा और मन को विकारी बनाने वाले स्वयं निर्णय करें कि उनकी प्राथमिकता कितनी सही है?
आधुनिक दवाइयाँ कितनी हानिकारक?
क्या बाजार में उपलब्ध दवाइयों अथवा इंजेक्शन रोगी विशेश के अनुरूप बनाए जाते हैं? दवा कैसे बनती है? कौन-कौनसे आवश्यक और कम उपयोगी अथवा अनावश्यक तत्त्व कितनी-कितनी मात्रा में होते हैं? इस बात का ज्ञान अथवा जानकारी उपचार करने वाले चिकित्सक को प्रायः नहीं होती है। क्या डॉक्टर दवा से पड़ने वाले दुश्प्रभावों का सही आंकलन कर सकते हैं? क्या दवा में आवश्यकता से विपरीत कम या अधिक तत्त्वों की मात्रा शरीर में असन्तुलन तो पैदा नहीं करेगी? क्या दवाइयों का परीक्षण एक जैसे रोगियों, वातावरण और परिस्थितियों में किया जाता है? दवाइयों के परीक्षण में ऐसा असम्भव ही होता है। जब रोग का कारण रोगी का चिन्तन, मनन,सोच, स्वभाव, तनाव, खान-पान, रहन-सहन, आचार-विचार, जीवनशैली आदि प्रत्येक व्यक्ति के लिए अलग-अलग होती है, तो लक्षणों के आधार पर किया गया निदान, परीक्षण और उपचार कैसे सटीक और वैज्ञानिक हो सकता है? प्रत्येक रोगी के लिए दवा का निर्माण उसके स्वयं की आवश्यकता के अनुसार होना चाहिए। बाजार से उपलब्ध दवा शत-प्रतिशत कैसे सही हो सकती है? ऐसे परिणाम कभी भी एक जैसे नहीं हो सकते। जब तक दवा का निर्माण रोगी की व्यक्तिगत आवश्यकताओं के अनुरूप नहीं होगा तो उपचार कैसे पूर्ण, प्रभावशाली, स्थायी हो सकता है? मात्र प्रमुख लक्षणों को दबा कर रोग में राहत पाना ही उपचार का ध्येय नहीं होता। दवाइयों के अनावश्यक सेवन से शरीर की रोग प्रतिरोधक शक्ति क्षीण होने लगती है। अतः ऐसा उपचार प्रायः अधूरा ही होता है।
स्वावलम्बी चिकित्सा पद्धतियाँ क्यों प्रभावशाली
स्वावलम्बी अहिंसात्मक चिकित्सा पद्धतियाँ रोग के मूल कारणों को दूर करती है। शरीर, मन और आत्मा में तालमेल एवं सन्तुलन स्थापित करती है। जो जितना महत्त्वपूर्ण होता है, उसको उसकी क्षमता के अनुरूप महत्त्व एवं प्राथमिकता देती है। शारीरिक क्षमताओं और उसके अनुरूप आवश्यकताओं में सन्तुलन रखती है। स्वस्थ जीवन जीने के लिए जो अनावश्यक, अनुपयोगी प्रवृत्तियाँ है, उन पर नियन्त्रण रखने हेतु सचेत करती है। इस प्रकार आधि, व्याधि और उपाधि के सन्तुलन से समाधि, शान्ति और स्वस्थता प्रधान करती है, अतः अन्य दवा पर आधारित चिकित्सा पद्धतियों से अधिक प्रभावशाली होती है।

— डॉ. चंचलमल चोरडिया

डॉ. चंचलमल चोरडिया

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