मुक्तक
आरज़ू कब किसी की ख़त्म होती है,
एक पूरी हुई दूसरी प्रारम्भ होती है।
जब भी चाहा आरज़ू से मुँह मोड़ना,
एक नई पीड़ा कुंठा उत्पन्न होती है।
है ज्ञानी कौन जग में, आरज़ू से मुक्त हुआ,
आरज़ू है मृगतृष्णा, हर कोई संलिप्त हुआ।
वेदना का भँवर है यह, जानते हैं सब कोई,
कोई नहीं मिलता, जो इससे विमुख हुआ।
रोज़ जीती आरज़ू, यह कभी मरती नहीं,
नित नव वस्त्र धारण, मगर कभी सँवरती नहीं।
जब भी चाहा आरज़ू को, हदों में सीमित करूँ,
विस्तारवादी आरज़ू हूँ, मैं कभी सिमटती नहीं।
— डॉ अनन्त कीर्तिवर्द्धन