क्या से क्या हो गया?
यह सार्वभौमिक और सर्वविदित सत्य है कि मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। उसके पूर्वज जंगली और उसके भी पहले बंदर थे। समाज में संतुलन, नैतिकता के निर्माण और लैंगिक अराजकता पर रोक लगाने के उद्देश्य से मनीषियों ने विश्व के कोने-कोने में वैवाहिक प्रथा को संस्कार के रूप में रेखांकित किया। भारतीय समाज ने इसे सोलह संस्कारों में पवित्रतम माना। मानव समाज रिश्तों की मर्यादा में बँधा रहे तथा संतानोत्पत्ति को आदर्श और पवित्र रूप मिल सके इसलिए विवाह की व्यवस्था मानव समाज ने अपनायी। समय के चलते मनुष्य का चित्र बदला। चरित्र बदला और इतना बदला कि पति – पत्नी के संबंध के लिए स्त्री – पुरुष की आवश्यक नहीं रहने की बात हो रही है। मनुष्य अपनी आदत बलदने पर आमादा है। विवाह एक संस्कार है। हम आदत बदल सकते हैं, संस्कार नहीं।
जंगल से गाँव और गाँव से शहर में पहुँचकर मानव शिष्ट और सभ्य हो गया। जब वह जंगली था तो मानव समाज में बहू-बेटी-माँ-बहन के संबंध नहीं होते थे। सभ्य मानव ने रिश्तों की सीमा का अतिक्रमण किया और नारी केन्द्रित गालियों की रचना की। ऐसे आदिपुरुष मानव समाज के ‘आदिसाहित्यकार’ थे। उनके द्वारा सृजित – रचित गालियाँ कालजयी हो गईं। आधुनिकतम सुसंस्कृत और सुशिक्षित मानव अब तक उन गालियों का प्रयोग कर निर्वहन कर रहा है। पता नहीं ये नहीं होते तो समाज के असमाजिक तत्वों का क्या होता? सुशिक्षित मानव अपना क्रोध और रोष कैसे प्रकट करता? बहू-बेटियों- माताओं और बहनों का शाब्दिक चीरहरण कैसे होता? इस कालजयी सृजन के लिए मैं इन मनीषियों को नमन करता हूँ।
… तो मैं कह रहा था मानव समाज ने सभ्यता प्रकट करने के उद्देश्य से विवाह नामक व्यवस्था का निर्माण किया। पिछले कुछ दशकों में और अधिक सभ्य हो गया है। वह पशुता से ऊपर उठना चाहता है। पशु संतान उत्पन्न करने और दैहिक आवश्यकता की पूर्ति के लिए परस्पर विरुद्घ लिंगीय संबंध बनाते हैं। माँ-बहन के रिश्तों से भी ऊपर उठकर वंश-वृद्धि करता है। मनुष्य ऐसा नहीं कर सकता, क्योंकि वह सभ्य-सुशिक्षित और सुसंस्कृत है। इसलिए वह बेचारा बलात्कार जैसे कर्म करके क्षुधापूर्ति कर लेता है।
विरुद्घ लिंगीय आकर्षण यह प्राणियों में पायी जानेवाली जन्मजात ईश्वर प्रदत्त प्रवृत्ति है, जिससे सृष्टि का क्रम निरंतर प्रवहमान है। दो विरुद्घ लिंगीय सजातीय प्राणियों के बीच रागात्मक और दैहिक आकर्षण की भावना रति भाव कहलाता है। साहित्य ने इस दैवीय आकर्षण को श्रृंगार- रस कह कर ‘रस राज’ की पदवी से सुशोभित किया है। पर इन दिनों एक बात मेरी समझ से परे है कि कैसे एक पुरुष को देखकर और नारी नारी को देखकर गा सकते हैं कि “बहारों फूल बरसाओ मेरा मेहबूब आया है।” लगता है अब मानव समाज सभ्यता और संस्कृति के उच्चतम स्तर पर पहुँच गया है। उसे अब तर्पण और मोक्ष प्राप्ति के लिए संतान और पुत्र की आवश्यक ही नहीं रही। यही हाल रहा तो संसार के शब्द कोष से बाँझ और बंधुर जैसे शब्द विलुप्त जायेंगे। कुलदीपक की लालसा में अनपढ़ दंपत्तियों के परिवार में कन्याओं की कतार लगना बंद हो जायेगी। कन्या भ्रूण हत्या के पाप कर्म से छुटकारा मिल जायेगा। बढ़ती हुई जनसंख्या पर रोक लगाने के लिए सुशिक्षित समाज द्वारा समलैंगिक विवाह को मान्यता एक रामबाण प्रयोग हो सकता है। यदि यह प्रचलन सौ वर्ष पहले आरंभ हो जाता तो भारत देश जनसंख्या-विस्फोट की त्रासदी में न फँसता और हमें इस सिरदर्द विषय पर वाद-विवाद या निबंध प्रतियोगिता के चक्रव्यूह में न पड़ना पड़ता। अंतर्जातीय प्रेमविवाह कर नाक कटानेवाले लौंडे-लौंडियों को प्रताड़ित ना होना पड़ता। दहेज, बाल-विवाह- सतीप्रथा जैसी कुप्रथाएँ संस्कारवान भारतभूमि में आविर्भूत ही नही होती। ना नौ मन तेल होता न राधा नाचती। साँप भी मर जाता और लाठी भी नहीं टूटती।
सभ्य होना, प्रगतिशील होना, शिष्ट और सुसंस्कृत होना अच्छी बात है क्योंकि इन सारे गुणों की अपेक्षा मनुष्य से ही की जा सकती है। लेकिन जब उक्त गुणों को आधुनिकीकरण का जामा पहनाकर बीच चौराहों पर चीरहरण किया जाने लगे तो समझ नहीं आता हम किस दिशा की ओर जा रहे हैं। पशु समाज में ऐसा नहीं होता, इसलिए इसे पाशविकता भी नहीं कह सकते। मनुष्य पशु था तब भी ऐसा नहीं करता था। अब हम पशु नहीं। मनुष्य भी नहीं। तो फिर क्या हैं? सोचिए आधुनिकता के चलते …. हम क्या से क्या हो रहे हैं?
— शरद सुनेरी