जब शिक्षित हैं तो बेरोजगार क्यों?
‘शिक्षित बेरोजगार ‘ यह शब्द आज हथौड़े की तरह समाज पर वार कर रहा है। प्रश्न यह उठता है कि अगर बच्चे को सत्रह अट्ठारह साल शिक्षा दी गई है तो उसने सीखा जो वह अपना जीवनयापन करने लायक भी नहीं कमा सकता? शिक्षा तो विद्यार्थियों का सर्वांगीण विकास करती है, फिर शिक्षित बेरोजगार कहाँ से पनपते हैं? कमी आखिर कहाँ रह गई है? यह गंभीर समस्या है जो समाज को घुन की तरह खाए जा रही है। किसी भी देश की युवा शक्ति ही उस देश को विकसित बनाती है। अगर युवा वर्ग ही लाचार हो तो विकास असंभव है। हमारी प्राचीन शिक्षा प्रणाली बहुत सशक्त थी जो थी गुरूकुल शिक्षा प्रणाली। जो बच्चों को हर प्रकार से पारंगत बनाती थी, आत्मनिर्भर बनाती थी। कोई भी युवा बिना काम के नहीं होता था क्योंकि उन्हे उनकी योग्यता और रुचि के अनुरूप प्रवीन बना दिया जाता था जो समाज और देश पर बोझ नहीं अपितु शक्ति बनकर उभरते थे। उस दौर में युवा वर्ग किसी भी प्रकार के अभाव का रोना न रोते हुए आत्मनिर्भर बनते थे। जब से अंग्रेजों ने भारत पर अपना अधिकार जमाया तो उन्हे आभास हुआ इन भारतीयों के संस्कार की जड़ें बड़ी गहरी हैं। अगर इन्हे तोड़ना है तो सबसे पहले इनकी बुद्धि पर वार करना होगा , इनकी गुरूकुल शिक्षा प्रणाली का विध्वंस करना होगा। लार्ड मैकाले ने यही किया और अंग्रेजी शिक्षा पद्धति को भारतीयों पर लाद दिया गया। तभी से शुरू हुआ हीन भावना के शिकार होने का दौर , भारतीय युवाओं को सरकारी नौकरी के ठाठ का सब्जबाग दिखाया जाने लगा । जो युवावर्ग ससम्मान अपना पैतृक व्यवसाय अपनाता था, कृषिकर्म निःसंकोच करता था, हर काम को महत्वपूर्ण समझता था अब उसे इन सब कार्यों को करने में लज्जा आने लगी और रटंत विद्या ने व्यवहारिक ज्ञान को पछाड़ दिया। इन सबका असर आज भी परिलक्षित होता है। अंग्रेज तो गए पर सचमुच में भारतीयों की बुद्धि भ्रष्ट कर गए। हमारे संस्कारों को कुचल डाला। परतंत्र होने के कारण ही भारत पिछड़ता चला गया वर्ना विश्व गुरू कहलाने वाला भारत, सोने की चिड़िया कहलाने भारत आज शिक्षित बेरोजगारों की बढ़ती संख्या की चिंता से ग्रसित है?
जहाँ शिक्षा है वहाँ बेरोजगारी कैसी? शिक्षा तो आत्मनिर्भर बनना सिखाती है न! सिर्फ विषय ज्ञान प्राप्त कर लेना शिक्षा हो ही नहीं सकती । शिक्षा तो वह है जो व्यवहारिक ज्ञान सिखाए, जीवन जीने की कला सिखाए, स्वावलंबी बनाए।शिक्षित बेरोजगार अपने आपमें काला धब्बा है। क्यों नहीं प्रेरणा लेता युवावर्ग उस एम.बी.ए.चाय वाले से, हल्दीराम भुजिया बनाने वाली कंपनी के मालिक से, लिज्जत पापड़ की नींव डालने वाली महिला से ? ऐसे अनगिनत उदाहरण हैं जो बताते हैं कि आत्मसम्मान, स्वाभिमान एक आदत होती है जो स्वभाव बन जाती है। जिसके स्वभाव में ऐसे गुण सम्मिलित हैं वह काम का मोहताज नहीं रहता क्योंकि उन्हे मेहनत करना आता है, संघर्ष से डर नहीं लगता।जरा सोचिए माता-पिता इतने बरस अपना पेट काटकर, मेहनत करके बच्चों को पढ़ने भेजते हैं, तगड़ी फीस देते हैं बिना किसी आनाकानी के क्या अपने बच्चे के नाम के साथ शिक्षित बेरोजगार सुनने के लिए और भत्ता पाने के लिए? खून के आँसू रोते हैं ऐसे माता-पिता जिनके बच्चे पढ़ाई-लिखाई करके भी आत्मनिर्भर नहीं बन पाते। अच्छा होगा बचपन से ही आत्मनिर्भर बनने की शिक्षा दी जाए। सभी पढ़ने में एक जैसे नहीं हो सकते, सरकार सभी को नौकरी नहीं दे सकती । जिन्होने मेहनत से नौकरी हासिल कर ली तो बहुत अच्छी बात है वर्ना कोई भी छोटा-मोटा लघु उद्योग, गृह उद्योग आरंभ करने में संकोच बिल्कुल नहीं होना चाहिए। अपना पारंपरिक काम आगे बढ़ाने में रूचि होना चाहिए। स्टार्टअप का जमाना है, युवावर्ग अपने रचनात्मक विचारों के साथ इस क्षेत्र में कदम रखे। हजारों रास्ते स्वयं को ऊँचा उठाने के लिए बस अनवरत चलना आना चाहिए। शिक्षा वही सार्थक है जो आंतरिक बल दे, आत्मविश्वास जगाए, विपरीत परिस्थित का डटकर सामना करना सिखाए न कि शिक्षित बेरोजगार पैदा करे।
— गायत्री शुक्ला