ग़ज़ल “बातें ही बातें”
ग़ज़ल “बातें ही बातें”
(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)
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रसना से मिलती सौगातें
अच्छी लगतीं प्यारी बातें
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दो से चार नयन जब होते
आँखों में हो जाती बातें
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दोपाये-चौपाये करते
अपनी न्यारी-न्यारी बातें
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हाव-भाव और भाव-भंगिमा
करते कितनी सारी बातें
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पलकों पर जब बिन्दु छलकते
हो जातीं दुखियारी बातें
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जब अधरों पर हँसी चहकती
तब होती सुखकारी बातें
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जब बातों से बात निकलतीं
टीका-टिप्पणीकारी बातें
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काली-अंधियारी रातों में
होती विस्मयकारी बातें
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त्यौहारों की मधु-बेला में
आशा की संचारी बातें
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बाग-बगीचे, वन-उपवन में
आती हैं संसारी बातें
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अपनी बातें-उनकी बातें
जीवन पर आधारी बातें
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बातें करना है लाचारी
कितनी हैं बेचारी बातें
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“रूप” सलोना सबको भाता
होती हैं कजरारी बातें
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