लघुकथा

दिशा

रात्रि भोजन कर समाचार सुनने बैठा, पर गोदी मीडिया की अनर्गल बेसिरपैर की बतकही सुन-सुनकर सर भारी हो गया तो सोने का प्रयास करने लगा। नींद का इंतजार करता सोचता रहा, “बढ़ती जाती महंगाई एवं सुरसा की तरह युवाओं का जीवन ग्रसती जाती बेरोजगारी, बड़ी-बड़ी डिग्रियाँ लेकर छोटी-छोटी नौकरियाँ करने को मजबूर युवा ; सरकारी संस्थाओं के निजीकरण से शोषण बचने की कोई राह नहीं, बात-बेबात छँटनी का कोई हल नहीं है इन पत्रकारों एवं राजनीतिज्ञों के पास। धर्म का पर्दा डाल दो सबकी आँखों पर ताकि उन्हें जमीनी समस्याएँ नजर ही न आएँ।” विचार आते-जाते रहे, शायद नींद आ गई।

कुछ पहर ही बीते होंगे कि किसी के सिसकने के स्वर से नींद उचट गई। सामने की कुर्सी पर लाल किनारी की सफेद साड़ी पहने एक देदीप्यमान महिला विराजमान थीं, जिनकी आभा अंधेरे कमरे को रोशन कर रही थी। मैं घबराकर जड़ सा हो गया। पर हिम्मत जुटाकर पूछा, “आप कौन हैं? अंदर कैसे आईं?”

उन्होंने मुस्कुराते हुए कहा, “मैं तो हर जगह विद्यमान हूँ। कहीं आने-जाने की जरूरत नहीं।”

मुझे लगा कि मैं अलौकिक शक्ति की चंगुल में हूँ, पर एक भद्र महिला से ऐसा अभद्र प्रश्न कैसे करता? डरते हुए इतना ही कह पाया , “आपसे बातें करते घरवालों ने सुन लिया तो सारे यहीं धमक जाएँगे।”

“मैं भारत माता हूँ। मुझे वही सुन सकता है, जिसे मैंने चुना हो।”

“प्रणाम स्वीकार करें। प्रतियोगी परीक्षाओं में तीन बार असफलता का मुँह देख चुका, अपनी जेब खर्च तक के लिए माता-पिता पर निर्भर एक तुच्छ इंसान आपके किस काम आ सकता है?”

“अभी-अभी अपनी माताओं के प्रति आभार व्यक्त करते हुए मातृ-दिवस मनाया गया है । मैं करोड़ों पुत्र-पुत्रियों की माता, सबका भार अपने सीने पर उठाए फिरती हूँ । स्वतंत्रता दिवस एवं गणतंत्र दिवस के अलावा मातृ दिवस पर भी मुझे याद किया जाना चाहिए कि नहीं?”

युवा शक्ति को उलाहना देने नहीं, सचेत करने आई हूँ। असफलताओं से चिढ़े हुए युवा, सत्तालोलुप राजनीतिक दलों के लिए सुलभ लक्ष्य होते हैं। सामाजिक समरसता पर विश्वास रखने वाले गिने चुने देशों में से एक ‘हमारे देश’ को अल्पसंख्यक एवं बहुसंख्यक में बाँटने की कोशिशें हो रही हैं। अनभिज्ञ तो नहीं हो तुम? धर्म की उत्पत्ति इंसान को अनुशासित रखने के लिए हुई थी पर आज उसे ही राजनीतिक हथियार बना दिया गया है। सबके विकास का मंत्र जपते नेता सिर्फ अपने विकास की सोचते हैं। अच्छा होगा, उनकी बातों पर कान न देकर अपना मानसिक संतुलन स्थिर रख शक्ति को सकारात्मक कार्यों में खर्च किया जाए। बेतहाशा बढ़ती आबादी, राजनीतिक पार्टियों के लिए वोट बैंक हो सकती है, पर आमजन के हित में कतई नहीं है। रोकथाम जरूरी है। मैं और कितना वजन उठा पाऊँगी, सेहत गिरती जा रही है मेरी। सोचना तुम युवाओं को ही है। और किसे पुकारूँ मैं?”

अचानक ही गला सूखने सा लगा और मैं उठकर बैठ गया। कमरे में कोई न था। समझ गया- सपना था, पर निरर्थक तो न था, अपना सा ही था।

— नीना सिन्हा

नीना सिन्हा

जन्मतिथि : 29 अप्रैल जन्मस्थान : पटना, बिहार शिक्षा- पटना साइंस कॉलेज, पटना विश्वविद्यालय से जंतु विज्ञान में स्नातकोत्तर। साहित्य संबंधित-पिछले दो वर्षों से देश के समाचार पत्रों एवं प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में लघुकथायें अनवरत प्रकाशित, जैसे वीणा, कथाबिंब, सोच-विचार पत्रिका, विश्व गाथा पत्रिका- गुजरात, पुरवाई-यूके , प्रणाम पर्यटन, साहित्यांजलि प्रभा- प्रयागराज, डिप्रेस्ड एक्सप्रेस-मथुरा, सुरभि सलोनी- मुंबई, अरण्य वाणी-पलामू,झारखंड, ,आलोक पर्व, सच की दस्तक, प्रखर गूँज साहित्य नामा, संगिनी- गुजरात, समयानुकूल-उत्तर प्रदेश, शबरी - तमिलनाडु, भाग्य दर्पण- लखीमपुर खीरी, मुस्कान पत्रिका- मुंबई, पंखुरी- उत्तराखंड, नव साहित्य त्रिवेणी- कोलकाता, हिंदी अब्राड, हम हिंदुस्तानी-यूएसए, मधुरिमा, रूपायन, साहित्यिक पुनर्नवा भोपाल, पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका, डेली हिंदी मिलाप-हैदराबाद, हरिभूमि-रोहतक, दैनिक भास्कर-सतना, दैनिक जनवाणी- मेरठ, साहित्य सांदीपनि- उज्जैन ,इत्यादि। वर्तमान पता: श्री अशोक कुमार, ई-3/101, अक्षरा स्विस कोर्ट 105-106, नबलिया पारा रोड बारिशा, कोलकाता - 700008 पश्चिम बंगाल ई-मेल : [email protected] व्हाट्सएप नंबर : 6290273367