मुक्तक/दोहा

संतों के दोहे

संत ज्ञान, तप, योग से, रचते जीवन-सार।
राह दिखा, आलोक दें, परे करें अँधियार।।

संत नित्य ही निष्कलुष, सदा आचरण नेक।
कर्म, सत्य को मानकर, साधें प्रखर विवेक।।

संत करें नित साधना, शुभ-मंगल का मान।
जहाँ संत होता वहाँ, हर दुर्गुण का अवसान।।

संत आचरण से बनें, बाह्य प्रदर्शन व्यर्थ।
जहाँ शुद्ध अंतर वहाँ, संत रूप का अर्थ।।

संत धर्म, अध्यात्म को, कर देते अभिराम।
जिसके मन में ब्रम्ह है, संत वही अविराम।।

संत त्याग का सार है, फलीभूत उत्थान।
रच सामाजिक चेतना, लाता नवल विहान।।

संत हरे हर वेदना, रोग, शोक, संताप।
सद्गुरु बनकर विश्व को, देता नवल प्रताप।।

मिथ्याचारी संत पर, बन जाते हैं शूल।
कर समाज को खोखला, काटें सत् की मूल।।

संत भोग का त्याग कर, ठुकराते हैं अर्थ।
छद्म रूप में संत पर, कर देते सब व्यर्थ।।

संत पूजते हम सभी, करके नत निज शीष।
करें कामना नित मिले, हम सबको आशीष।।

— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]