सामाजिक

अरमानों से गहरा इज्जत का रंग

सारे मेहमान मस्ती में झूमते मज़े ले रहे थे, पर शादी के शोर के बीच दुल्हन के भीतर ही सन्नाटा पसरा हुआ था। मन डावाँडोल और दिल में जज़्बातों का उफ़ान उठा था।
आरती असमंजस की स्थिति में मेहंदी रचे हाथों को देख रही थी, ढूँढ रही थी शादी का रोमांच और सोच रही थी.. क्यूँ मेरी भावनाओं की कद्र नहीं? माँ-पापा की इज्जत की ख़ातिर मैंने अक्षय से रिश्ता तोड़ लिया, लेकिन मेरे प्यार को अपना कर घरवालों ने क्यूँ अपना बड़प्पन नहीं दिखाया? अक्षय के साथ मेरे प्रेम संबंध के बारे में पता चलते ही गुस्से से आगबबूला होते पापा ने फैसला सुना दिया! “ये रिश्ता मुझे कतई मंज़ूर नहीं” न अक्षय के बारे में जानने की कोशिश की, न उसकी काबिलियत को जानना चाहा न मेरी भावनाओं पर विचार किया। मेरी खुशी किसके साथ जुड़ी है ये भी नहीं सोचा और कह दिया शादी वहीं पर होगी जहाँ मैं कहूँगा। मैंने पापा से कहा अगर ऐसी बात है तो ठीक है फिर मैं भी कभी शादी नहीं करूँगी! ताज़िंदगी अक्षय को चाहते उम्र गुज़ार लूँगी। उस पर पापा कहने लगे, “बिना शादी का प्यार पाप है” मेरी समझ में ये नहीं आता तो जिस शादी में प्यार नहीं वो रिश्ता पवित्र कैसे कहलाएगा? दिल में किसी ओर का नाम अंकित करके किसी ओर की आगोश में कैसे सुख पाऊँगी, क्या ये धोखा नहीं होगा? क्या ये मेहंदी का रक्तिम रंग तीन लोगों के एहसासों का कत्ल नहीं कहलाएगा। क्यूँ लड़कियों को अपना जीवनसाथी चुनने का अधिकार नहीं।
इतने में माँ ने पीछे से आकर कान में कहा, लाडो “पीछे के दरवाज़े पर अक्षय खड़ा है, भूतकाल में जो मेरे साथ हुआ वो तेरे साथ नहीं होने दूँगी। जा मेरी बच्ची, जी ले अपनी ज़िंदगी”। माँ को बड़े प्यार से एक नज़र निहारते आरती बोली, “माँ इज्जत का रंग अरमानों के रंग से बहुत गहरा होता है, अगर मेरा प्यार सच्चा है तो मिल लूँगी अक्षय को अगले जन्म में” पर जिसने मुझे जन्म दिया, पाल पोषकर बड़ा किया, पढ़ा-लिखाकर काबिल बनाया उस इंसान का सर कैसे झुकने दूँ? इतना कहकर आरती मंडप की ओर आगे बढ़ गई। पर्दे की आड़ में बेटी के अरमानों के कातिल किरदार के दो हाथ दोहरे भावों से घिरे आँसू पौंछ रहे थे। खुद भी नहीं जानते थे क्यूँ अश्क बह रहे है! बेटी के लिए खुद वर ढूँढकर इज्ज़त बचाने की खुशी थी, या बेटी के अरमानों का खून करने का अपराधबोध।  एक तरफ़ शादी का जश्न मनाते खोखली मानसिकता की जीत पर मेहमानों का मजमा झूम रहा था और दूसरी ओर एक घर के किसी कोने में तमाशबीन, लाचार प्रेम पितृसत्तात्मक सोच की बलि चढ़ रहा था। एक बार और….
— भावना ठाकर ‘भावु’ 

*भावना ठाकर

बेंगलोर