गीत/नवगीत

भेष बदले हैं शिकारी

जाल भी दिखते नहीं हैं, भेष बदले हैं शिकारी।
रोज़ ही फँसने लगी हैं, एक दो चिड़िया हमारी।।
          कौन से रंगीन दाने।
          फेंक रक्खे हैं न जाने।
          जान की चिंता किए बिन,
          जा रही चिड़िया उठाने।
भेज दी शायद उन्होंने, घास चरने अक़्ल सारी।।
          हर क़दम पर त्रास देगा।
          पंख सारे नोच लेगा।
          और उस पर भी बधिक हँस,
          प्यार करता हूँ कहेगा।
व्याध तो होगा सुनिश्चित क्रूरता का ही पुजारी।।
          दोष दें मासूमियत को।
          या किसी की वहशियत को।
          देख ही पाती नहीं है,
          क्यूँ चिरैया असलियत को।
टूटनी ही चाहिए अब, इन परिन्दों की ख़ुमारी।।
— बृज राज किशोर ‘राहगीर’

बृज राज किशोर "राहगीर"

वरिष्ठ कवि, पचास वर्षों का लेखन, दो काव्य संग्रह प्रकाशित विभिन्न पत्र पत्रिकाओं एवं साझा संकलनों में रचनायें प्रकाशित कवि सम्मेलनों में काव्य पाठ सेवानिवृत्त एलआईसी अधिकारी पता: FT-10, ईशा अपार्टमेंट, रूड़की रोड, मेरठ-250001 (उ.प्र.)