मुझे खाना ना खाते देख अपनी भूख मिटाते चले जाते थे,
मेरे तन को घटता देख वो अपनी उम्र को घटता हुआ पाते थे।
मन जब मेरा व्याकुल हो जाता था, वो देखते ही पहचान जाते थे,
लेकिन आकुलतावश मुझसे कुछ वो कह भी नहीं पाते थे।
इज़्ज़त, प्रेम, ईमानदारी के तौर तरीक़े वो बेहतरीन सिखाते थे,
पर मुझ किंकर को कहाँ वो शब्द उस वक्त समझ आते थे,
आज दूर हूँ तो बहुत याद करती हूँ अपने परिवार को,
लेकिन समय की कलाकृति में ऐसे बिछुड़े,
अब तो हम सिर्फ़ जी रहे हैं,
ज़िंदादिली से तो उनकी छाँव में ही जी पाते थे।
— रेखा घनश्याम गौड़