इतिहास

खजुराहो की सपरिकर अनूठी आदिनाथ जिन प्राचीन प्रतिमा

खजुराहो मध्यप्रदेश के छतरपुर जिले में स्थित है और अत्यन्त कलापूर्ण भव्य मंदिरों के कारण विश्व भर में प्रसिद्ध पर्यटन केन्द्र है। एक हजार वर्ष पूर्व यह चन्देलों की राजधानी था, किन्तु आज तो यह एक छोटा सा गाँव है जो खजुराहो सागर अपरनाम निनौरा ताल नामक झील से दक्षिण-पूर्वी कोने में बसा है। यह स्थान महोबा से ५५ कि.मी. दक्षिण की ओर, हरपालपुर से ९६ कि.मी. तथा छतरपुर से ४६ कि.मी. पूर्वा की ओर, सतना से १२० कि.मी. व पन्ना से ४३ कि.मी. पश्चिमोत्तर दिशा में है। इलाहाबाद, कानपुर, झाँसी, ग्वालियर, बीना, सागर, भोपाल, जबलपुर आदि से बस द्वारा छतरपुर होते हुए खजुराहो पहुँच सकते हैं। इन सभी स्थानों से खजुराहो तक पक्की सड़क है और नियमित बस सेवा है। रेल से यात्रा करने के लिए खजुराहो को-इन्दौर, उदयपुर, मंडुवाडीह, भोपाल, कुरुक्षेत्र आदि से जोड़ दिया गया है।
चंदेल काल के कई जैन शिलालेख खजुराहो में पाए गए हैं। पार्श्वनाथ मंदिर में सबसे पहला संवत 1011 (954 ईस्वी) है, और आखिरी संवत 1234 (1177 ईस्वी) है, यह खजुराहो में अंतिम चंदेला युग का शिलालेख भी है। कीर्तिवर्मन (शासनकाल 1060-1100 ) के समय में, राजधानी महोबा में स्थानांतरित हो गई, और खजुराहो का पतन हो गया।
खजुराहो में एक साहू शांतिप्रसाद जैन पुरातात्त्विक संग्रहालय है, जहाँ चंदेल काल की ऐतिहासिक जैन कलाकृतियाँ संरक्षित हैं। इस संग्रहालय में एक अद्भुत और अनूठी प्राचीन तीर्थंकर आदिनाथ की सपरिकर प्रतिमा है। इसका द्विस्तरीय परिकर है। मूलनायक प्रतिमा पद्मासस्थ है। बलुआ पाषाण से निर्मित अत्यन्त कलात्मक है।
परिकर में प्रायः 2, 3, 5, 7, 12, 24, 36, 108, 1000 तक अन्य प्रतिमाएं शिल्पित किये जाने के उदाहरण हमें मिलते हैं, किन्तु खजुराहो की यह प्रतिमा अन्य प्रतिमाओं के अंकन की परम्परा से बिल्कुल हटकर है, इसीलिए यह बहुत महत्वपूर्ण व अनूठी है।
इस प्रतिमा के प्रथमस्तरीय परिकर में मूलनायक के अतिरिक्त 20 तीर्थंकर प्रतिमाएं हैं। मूलनायक प्रतिमा चतुःस्तंभीय आसन पर स्थापित है। आसन में मध्य में धर्मचक्र, उसके दोनों ओर सिंहासन के विरुद्धाभिमुख दो सिंह शिल्पित हैं। आसन पर आगे एक राज्यमुद्रा जैसा प्रतीक बना है, जिसमें संभवतः मोटी प्रज्ज्वलित मशाल, उसके दोनों ओर बैठा हुआ एक-एक शार्दूल (ब्याल), आसन पर एक और अतिरिक्त गद्दी दर्शायी गई है, जिसपर मूलनायक तीर्थंकर आसीन हैं। जिनासन के आगे मध्य में तीर्थंकर के लांछन के रूप में एक बैठा हुआ सुदृढ़ वृषभ अंकित किया गया है। उसके दोनों ओर भक्त युगल हैं।
सिंहासन के दोनों पाश्र्वों में मूलनायक के यक्ष-यक्षी शिल्पित हैं। प्रतिमाशास्त्र के नियमनुसार मूलनायक तीर्थंकर के दक्षिण के ओर यक्ष और बाम ओर यक्षी शिल्पित है। यक्ष का मुख गाय के समान कर्ण-विषाण युक्त है जिससे यह प्रथम तीर्थंकर का ‘गोमुख यक्ष’ जान पड़ता है। वाम पाश्र्व की यक्षी निश्चित रूप से चक्रेश्वरी होगी।
यक्ष और यक्षी के ऊपर एक एक आसन पर चंवरधारी द्विभंगासन में खड़े शिल्पित हैं। इनकी ऊँचाई मूलनायक प्रतिमा के स्कन्धों तक है। इन्हें विविध आभूषणों- पैजनियां, अधोवस्त्र, कटिसूत्र, कटिमेखला, भुजबंध, मणिबंध, यज्ञोपवीत, एकावली, मौक्तिक, उपग्रीवा आदि गलहर, कर्णोत्पल और किरीट से सुसज्जित दर्शाया गया है। इनके मूलनायक की ओर के हाथों में चंवर है और विरुद्ध हस्त में एक श्रीफल के जैसा फल धारण किये हुए हैं। दोनों चंवरधारी यक्षों के एक-एक पाश्र्व में एक लघु मानवाकृति शिल्पित है, जिनकी ऊँचाई चंवरधारियों के कटि तक है।
मूलनायक तीर्थंकर के दोनों घुटने, हथेलियां और स्कंध से दाहिना हाथ भग्न है। मुख, नासिका को भी क्षति पहुंचाई गई है, फिर भी मुख-मण्डल कांतियुक्त है। प्रतिमा के वक्ष पर कलात्मक श्रीवत्स चिह्न है। केश-लटें दोनों स्कंधों पर सुन्दरता से टंकित की गई हैं। घुंघुराले केश, शिर के ऊपर उष्णीष, शिर के पीछे कलात्मक प्रभावल शिल्पित है। शिरोभाग के दोनों ओर गजलक्ष्मी का गज शिल्पित है। गज की गर्दन पर अभिषेकातुर कलशहस्त व्यक्ति आसीन है, तो उसी हाथी पर उस व्यक्ति के पीछे विरुद्धाभिमुख एक महिला बैठी हुई अंकित है। मूलनायक के शिर के ऊपर छत्रत्रय सुशोभित, छत्रत्रय के ऊपर मृदंगवादक है। छत्रत्रय के दोनों ओर माल्यधारी गगनचर अैर उनके ऊपर पुष्पवर्षक देव और देवी जोड़े से शिल्पित हैं।
दोनों ओर के परिकर की जिनमुद्राओं को देखें तो चंवरधारी के स्कंधभाग के निकट से एक पद्मासन, उसके ऊपर दो समानान्तर कायेत्सर्ग, उनके ऊपर एक पद्मासन, फिर दो कायोत्सर्ग और इनके ऊपर समानान्तर चार तीर्थंकर, जिनमें दो कयोत्सर्ग और दो पद्मासन हैं। इस तरह एक ओर 10 प्रतिमाएं अैर इतनी ही दूसरी ओर तथा एक मूलनायक इस तरह 21 प्रतिमाएं प्रथम स्तरीय परिकर की हुई।
मूलनायक प्रतिमा के स्कंध-केश, लांछन वृषभ और गोमुख यक्ष व चक्रेश्वरी यक्षी के अंकन से निश्चित होता है क यह प्रथम तीर्थंकर आदिनाथ ऋषभदेव की सपरिकर प्रतिमा है।
द्वितीय स्तरीय परिकर अन्य परिकरों की परम्परा से हटकर है। इसमें दोनों ओर एक एक कायोत्सर्गस्थ सप्तफणयुक्त प्रतिमा है। दोनों प्रतिमाओं के पाश्र्वों में आराधक युगल, चंवरधारी, सप्तफण, श्रीवत्स, छत्रत्रय, गगनचर माल्यधारी इनका समन रूप से अंकन है। किन्तु आसन में वैभिन्नता है। दायें तरफ की प्रतमा के आसन में सिंहयुगल हैं तो बायीं के आसन में यक्षी अंकित है। बायीं ओर के बाम पाश्र्व में द्विभंगासनस्थ एक के ऊपरिम भाग में दो आभूषणों से सज्जित स्त्री छबियां हैं, तो दायीं प्रतिमा के पाश्र्व में कायोत्सर्ग जिन प्रतिमा है।
इस द्वितीय स्तरीय परिकर के वतन में मध्य में पद्मासनस्थ पंच फणयुक्त तीर्थंकर उनके पाश्र्र्वों में एक-एक कायोत्सर्ग जिन पुनः उनके पाश्र्वों में दो पंक्तियों में पांच-पांच कायोत्सर्ग जिन अंकित हैं। वितान में दोनों कोनों अर्थात् दो पंक्तियों में कायोत्सर्ग जिन के उपरान्त मण्डप में एक-एक पद्मासन प्रतिमा है और उनके पाश्र्वों में एक-एक कायोत्सर्गजिन अंकित हैं। इस तरह इस द्वितीयस्तरीय परिकर में वितान सहित 32 प्रतिमाएँ शिल्पित दिखती हैं। यह प्रतिमांकन अनूठा है, ऐसा अंकन अन्यत्र दुर्लभ है।
इस प्रतिमांकन का समय 10वीं से 12वीं सदी का जान पड़ता है, क्योंकि खजुराहो की जैन मूर्तियों के निर्माण क समय यही है। यह विश्लेषण केवल छायाचित्र के आधार पर किया गया है।

— डाॅ. महेन्द्रकुमर जैन ‘मनुज’

डॉ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज

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