उल्लुओं से एक अपील
भारत ‘खोरों’ का देश है। यहाँ का बचपन प्रायः चुगलखोर होता है। बड़ा होकर धनवान होने पर वह ‘सूदखोर’ बन जाता है। सरकारी नौकरी उसे ‘रिश्वतखोर’ बना देती है। समय की माँग के अनुसार वह ‘हरामखोर’ हो जाता है। अब राजनीति भारतीयों को अब ‘मुफ्तखोर’ बना रही है। लड़कपन में अम्मा का गालों पर पड़ा वह तमाचा मेरे कान झनझना रहा है जो एक व्यक्ति से मुफ्त में एक छोटी सी टॉफी लेने पर पड़ा था। उसके बाद से अब तक किसी से मुफ्त में कुछ लेने का साहस नहीं जुटा पाया। ये देश शिवाजी महाराजा, लक्ष्मीबाई और राणाप्रताप को उनकी वीरता से अधिक स्वाभिमान के लिए पहचानता है। हम आज बच्चों को विद्यालय में इन तीन सूरमाओं के बारे में स्वाभिमान का जीवन जीने की शिक्षा देने के लिए पढ़ाते हैं। अपनी युवावस्था में फिल्म दीवार का वह दृश्य अभी आँखों से ओझल नहीं हुआ है जब खुद्दार बालक विजय के पैसे सिर्फ इसलिए नहीं उठाता क्योंकि उसे सेठ पैसे फेंककर देता है। दर्शकों की तालियों की गड़गड़ाहट उस स्वाभिमान को बार-बार संगीतमय कर देती है। आज राजनीतिज्ञ एक वोट के बदले उनका स्वाभिमान खरीद रहे हैं। पंजाब में भगतसिंह के वारिसों ने, दिल्ली में पांडवों के वंशजों ने मुफ्त की बिजली के चक्कर में अपना स्वाभिमान गिरवी रख दिया। अब राणा प्रताप सिंह के राजपुताने के खानदानी मुफ्त की बिजली लेकर अपनी मूँछ मुढ़वाने को तैयार बैठे हैं। जिस लक्ष्मीबाई की तलवार अंग्रेजों के सामने स्वाभिमान से ललकार उठी थी-“मैं अपनी झाँसी नहीं दूँगी।” आज भारत की वही मध्य हृदयस्थली कुछ इकाई बिजली के लिए नेताओं के तलवे चाटने को जीभ लपलपा रही है। किसी शायर ने कहा था -” एक ही उल्लू काफी था बर्बाद-ए-गुलिस्ताँ करने को, हर शाख पे उल्लू बैठा है अंजाम-ए-गुलिस्ताँ क्या होगा।” चुगलखोर, रिश्वतखोर, हरामखोर देशवासियों को मुफ्तखोर बनाकर दाने परोस रहे हैं। उन्हें उल्लू बनाकर आज सफेदपोश बगुले भगत अपना उल्लू सीधा करने में लगे हैं। धोखे से अपने पैर पर कुल्हाड़ी लग जाय तो भूल मानी जाती है लेकिन कुल्हाड़ी पर पैर रखना मूर्खता है। कविवर शिवमंगलसिंह ‘सुमन’ याद आ रहे हैं जिन्होंने स्वार्थी और मुफ्तखोरों को ललकारा था-
“पुरुषों का अभिमान तुम्हारा, और वीरता देखी
राम-कृष्ण की संतानो, व्यर्थ न मारो शेखी
सुख-शांति-समृद्धि को, स्वार्थ में झोंकनेवालों
भूखे बच्चे अबलाओं को छुरा घोंपनेवालों
ऐसी बर्बरता का इतिहास में नहीं हवाला
मेरा देश जल रहा कोई नहीं बचानेवाला।”
तो देश के मुफ्तखोर उल्लुओ अपनी गरदन को चारों ओर घुमाओ और समझदार बन जाओ या उल्लू ही रहोगे?
— शरद सुनेरी