व्यंग्य – पइसा दे दो पइसा
पइसा दे दो पइसा, हाहाहाहाहा- अरे-अरे आप ग़लत समझ रहे । ये कोई मुफ्त मे पैसे मांगने वाले नहीं हैं भाई, ये तो वो लोग है जो जनता का कार्य कर रहे और उसके बदले मोटी कमाई के रूप मे पैसे मांग रहे। आज कल ये बताइए हम तो मुफ्त मे वैसे भी किसी को कहां कुछ देते हैं। दुनिया बहुत समझदार हो गई है। अब कहां पहले से वो जज़्बात रहे कि हर किसी पर दया, ममता लुटाई जाए। अरे यहां तो अब कोई राह पर एक्सीडेंट से घायल इंसान तड़पता भी दिखे तो लोग कन्नी काटकर निकल जाते हैं। तो कोई क्यों किसी को मुफ्त मे पैसे बाटेगा भला। हां, इतना जरूर है कि पैसा चाहने वाले लोग अब समझ गये हैं दुनिया वालों को, कि अब इनसे पैसा निकालना आसान नहीं रह गया है तो इसके लिए कितने नये-नये हथकंडे आजमाते ये लोग। अरे किसी एक क्षेत्र से संबंधित हो एसे लोग तो मैं बताऊं। यहां तो हर क्षेत्र में, एसे लोग भरपूर मिलेंगे। अरे क्षेत्र का मतलब नहीं समझे क्या? क्षेत्र का मतलब हे जैसे बीमा, बैंक, लोन, व्यवसाय, साहित्य अरे हां साहित्य भी अब कहां अछुता रहा । वो साहित्य क्षेत्र जिसमें कितने घायल या मोहब्बत में कायल लोग खुद के सुकून के लिए लिखने आते और खुद को मरहम लगा, खुश हो जीना सीख जाते। परंतु ये क्या इस साहित्य क्षेत्र में भी पैसा-पैसा-पैसा मांगने वाले लोगों का मकड़जाल। अरे ये लोग ऐसे पैसा मांगते कि जैसे साहित्यकारों कि तो चांदी ही चांदी हो। लोग सोचते कि जहां भी बस साहित्यकारों ने कलम चलाई और उन्हें मोटी राशि मिल जाती है। अरे-अरे-अरे एसा कुछ भी नहीं है मेरे भाई-बंधु बल्कि साहित्यकारों को तो लेखन कार्य का कहीं से भी कोई पारिश्रमिक नहीं मिलता है, बल्कि साहित्यकारों को उल्टे ही कभी-कभी अपनी जेब से पैसा भरना ही पढ़ता है। अरे पांच सौ में से मात्र पांच साहित्यकार नसीब वाले होंगे जिनको पैसा मिलता होगा। शेष तो सभी बेरोजगार, जिन्हें अपने जीवन व्यापन के लिए तो कमाना ही पड़ता है। ये तो साहित्यिकार है जो अपने सुकून खुशी के लिए कुछ पल निकाल खुद के लिए लिख लेता है। खैर वो गाना हे ना आप सभी ने सुना ही होगा ना- कुछ तो लोग कहेंगे, लोगों का काम है कहना। हां भाई लोग यही कहते, सोचते, की साहित्यिकार तो बस कलम चलाता और मोटी कमाई कमाता, बोलने दो, सोचने दो, सोचने वालों को पर ये तो साहित्यिकार ही जानता की उसकी फटी जेब है और वो तो कलम का मुरीद है। अब तो देखो साहित्य मे किस कदर लोग दूसरों से पैसा मांगते भाई जैसे मानों वो सोच रहे कि गाजर मूली की खेती की तरह साहित्यकार भी पैसा पैदा कर रहा हो। अरे हर क्षेत्र मे गिद्ध आंख गड़ाए रहते पैसों के लिए मानती हूं, पर हर क्षेत्र मे पैसा कैसे ना कैसे करके मिलता ही है। परंतु साहित्य जगत मे पैसा नहीं मिलता साहित्यकारों को तो वो कैसे बात-बात मे पैसा देंगे आप ही बताओ कैसे? आखिर कब तक अपने घर वालों के हक का पैसा एसे लोगों को दिये जाएंगे। अब देखो ना प्रतियोगिता निकालते ऐसे मकड़जाल वाले रजिस्ट्रेशन फीस पचास या सौ रूपए तीन लोगों को इनाम दिया और बाकी पैसा जेब मे, साझा पुस्तक बनाते कविता लेते, पैसा भी लेते खर्चा हुआ सौ पुस्तक का दस हजार रूपए शेष जेब मे और किताब का मालिकाना हक भी ले लेते। ओर तो ओर इनको ये भी पता होता कि कौन सा मुर्गा या मुर्गी फसेगी इनके मकड़जाल मे मतलब की जो नवीन साहित्यकार होते वो, वृद्ध साहित्यकार यही तो फंसते हैं और ये गिद्ध भी हमेशा हर आनलाईन संस्था मे नज़र गड़ाए रहते की अब आ गया शिकार दाना डाल देते हैं। नवीन साहित्यकार इसलिए जल्दी फसते की उनको लगता की हमारी कविता किताब मे छपेगी ये तो बहुत बड़ी उपलब्धि है। वरिष्ठ बुजुर्ग साहित्यकार का तो मुझे आज तक समझ नहीं आया कि क्यों साझा संकलन में रचना देते। हाल ही मे एक वरिष्ठ साहित्यकारा से विडियो काल पर बात हुई उसने खुद बताया कि दोस्ती के चलते वीना मुझे मजबूरी मे पैसे देने पड़े। अरे आप बुजुर्ग खुद सोचियेगा, कि आप जिस दौर से गुज़र रहे हैं उस दौर मे ना आपके पास कोई कमाई का जरिया है और ना ही अब आप मे वो कार्य करने की शक्ति जिससे आर्थिक लाभ हो सके मैं यहां सच्चाई रख रही क्यों कि आज नहीं तो कल सही मैं भी इसी दौर से निकलूंगी ये तो प्रकृति का नियम है तो इस समय अंतराल हम कब बीमार हो जाएं या वगैरह-वगैरह कारणों से हमें पैसों कि जरूरत पड़ जाए तो हम पैसा तब कहां से लाएंगे। क्या हम बात बात पर अपनी संतान से मदद् मांगेंगे। उस संतान से जिसके ऊपर आप के साथ-साथ अपने परिवार की भी जिम्मेदारी है। बहुत से वरिष्ठ लेखकों को भी जानती जो पैसा देकर सम्मान खरीद रहे हैं, उनके परिवार के सदस्य मुझे व्यक्तिगत फोन करके बताते की वीना हम परेशान हो गये हैं। एक बात बताइए क्या ये अवार्ड आप सिर्फ थोड़े से नाम के लिए परिवार को परेशान कर खरीद रहे। अरे अवार्ड तो वो मीठा लगता जो हमारी कला के लिए, सेवा के लिए, हमारे कर्मों, व्यक्तित्व को देखकर दिया गया हो। ऐसा सम्मान, ऐसा साझा संकलन, ऐसा अपने परिवार को कष्ट देकर साहित्य जगत मे नाम कमाना सार्थक नहीं बल्कि निर्थक ही होता है। पइसा मांगने वाले तो अनगिनत मिलेंगे, एक को दोगे पइसा तो दूसरा भी पीछे खड़ा मिलेगा,आज कल पइसा-पइसा-पइसा मांगने वालों को करे नज़र अंदाज़ कर, अइसा-अइसा-अइसा क्या।
— वीना आडवाणी तन्वी