मुक्तक/दोहा

गर्मी के दोहे

सूरज आतिश बन गया,गर्मी के आ़याम।
कैसे कटें पहाड़ दिन,ढूँढें सब आराम।।
घर के भीतर हैं घुसें,दिन बन गये पहाड़।
कटता किंचित है नहीं,दिन गर्मी में भाड़।।
लू का तो आक्रोश है,बिलख रहे इंसान।
कुंओं,नदी की खो गई,देखो सारी आन।।
कर्फ्यू सड़कों पर लगा,आतंकित हर एक ।
सूरज के तो आजकल,नहीं इरादे नेक ।।
कूलर,पंखे हँस रहे,ए.सी.का है मान ।
ठंडे ने इस पल “शरद’,पाई नूतन शान ।।
कोल्डड्रिंक भाने लगे,कुल्फी पर है गौर ।
शीतल जल की मांग है,ठंडे का है दौर ।।
किरणें ना किरणें लगें,बरस रही है आग ।
बचना यदि चाहो ‘शरद’, तो लो बचकर भाग ।।
कम्बल अब बेकार हैं,बिरथा ऊनी वस्त्र ।
किरणें हमले कर रहीं,बनकर तीखे शस्त्र ।।
पानी जैसा बह रहा,तन से अविरल स्वेद ।
इस मौसम में हो रहा,हर इक जन को खेद ।।
दिन पहाड़ से बोझ हैं,बने हुये अभिशाप।
दिन पर दिन बढ़ने लगा,सूरज का तो ताप।।
— प्रो (डॉ) शरद नारायण खरे 

*प्रो. शरद नारायण खरे

प्राध्यापक व अध्यक्ष इतिहास विभाग शासकीय जे.एम.सी. महिला महाविद्यालय मंडला (म.प्र.)-481661 (मो. 9435484382 / 7049456500) ई-मेल[email protected]