ग़ज़ल “टूटी पतवार लिए बैठा हूँ”
ग़ज़ल “टूटी पतवार लिए बैठा हूँ”
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गम का अम्बार लिए बैठा हूँ
लुटा दरबार लिए बैठा हूँ
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नाव अब पार लगेगी कैसे
टूटी पतवार लिए बैठा हूँ
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जा चुकी है कभी की सरदारी
फिर भी दस्तार लिए बैठा हूँ
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बेईमानों के बीच में रहकर
पाक किरदार लिए बैठा हूँ
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इश्क के खेल का खिलाड़ी हूँ
जीत में हार लिए बैठा हूँ
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देख हालत बुरी ज़माने की
दिल में अंगार लिए बैठा हूँ
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रुपहले “रूप” के इदारों में
मैं कल़मकार लिए बैठा हूँ
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(डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)