वंस मोर वंस मोर
शुभ प्रभात
पढ़कर अखबार
हुआ ज्ञात
निकल पड़ा ढ़ूँढ़ने
पथरीली पगडंडियाँ
कटिली झाड़ियां
ऊंचे घने वृक्ष
कोयल के स्वर
झिंगुर के बोल
सूखे पत्तों में सरसराहट
डरे हुए मन की सुगबुगाहट
नीले आकाश तले
हरे भरे मैदान
काला-कलूटा कागा शैतान
मैं निकला था
प्रकृति दर्शन को
शुद्ध पर्यावरण स्पर्शण को
मुझे मिली काली नागिन सी सड़कें
जो लील लेना चाहती थी
सुदूर सुदूर तक भग्न धरा
बिन पेड़ों के
हाँ, कहीं कहीं कटे
पेड़ों के तने
वाट जो रहे थे
पुन: कटने की
कबूतर चील तोते तो
जैसे खा गया हो इंसान
कहीं नजर नहीं आये
हाँ, नज़र आई
पोलीथिन की थैलियों के अंबार
जो उड़ रही थी
और उड़ा रही थी
प्रकृति/पर्यावरण का मजाक
ना सौंधी हवा थी ना
अमृत तुल्य पानी
नालों की दुर्गंध
अट्टहास किए हुए थी
सड़क के किनारे
प्रकृति-पर्यावरण
दोनों की जगह
विकृति-दुषितावरण
छाया हुआ था चहुँ ओर
कवि कैसे होवे विभोर
वो दिन लौटे फिर
वंसमोर वंसमोर …
— व्यग्र पाण्डे