खरबूजा खाँस रहा है!
स्वजातीय को देखकर रंग बदलने की परम्परा अत्यंत प्राचीन है।इस मामले में खरबूजा और आदमी परस्पर प्रतियोगी की भूमिका में दिखाई देते हैं।यह बता पाना इतना सहज और सरल नहीं है कि पहले कौन? खरबूजा या आदमी? बहरहाल इतना तो सुनिश्चित है कि इन दोनों में कोई भी किसी से पीछे नहीं है।
रंग बदलने का सीधा- सा अर्थ है कि अपना रंग बदलने वाला अपने सहज स्वरूप और प्रकृति से भिन्न अपना आकार प्रकार और रंग -रूप बदल लेता है। यों तो रंग बदलने के मामले में गिरगिट का कोई सानी नहीं है। वह भी समय – समय पर अपना रंग बदल लेने के लिए प्रसिद्ध है।लेकिन इस आदमी ने तो बेचारे गिरगिट को भी पीछे छोड़ दिया है।यों तो प्रकृति में मेढक, सर्प तथा कुछ अन्य कीट -पतंगे भी इस रंग -बदल कला के विशेषज्ञ हैं।उन्हें आत्म-रक्षार्थ या किसी परिस्थिति विशेष में रंग बदलना ही पड़ जाता है।इसके विपरीत ये आदमी नामधारी जंतु तो अकारण सकारण भी रंग बदलते हुए देखा जाता है।
यों तो रंग बदलना एक कला है।जो हर एक व्यक्ति के लिए संभव भी नहीं है।किसी को धोखा देना हो ,तो अपनी वास्तविक पहचान छिपाने के लिए रंग बदलना भी अनिवार्य हो जाता है।रावण ने सीता का अपहरण करने के लिए रंग बदला था इस बात से कौन भिज्ञ नहीं है!मारीच मामा ने सीता को मृग मरीचिका दिखाने के लिए स्वर्ण मृग का सुंदर रूप धारण किया।चन्द्रमा ने गौतम ऋषि की पत्नी को छलने के लिए स्वयं गौतम शरीर में परिवर्तन कर लिया और वह गौतम वेषधारी छलिया चंद्रमा को नहीं पहचान सकी।इसी प्रकार मछुआरे की बेटी मत्स्यगंधा सत्यवती को ठगने के लिए ऋषि पराशर ने अपना रंग जाल फैलाया ,जो महर्षि वेदव्यास के रूप में रंग लाया,यह भी जगत प्रसिद्ध है।
रंग बदलने के इन प्राचीन उदाहरणों से इतना तो स्पष्ट हो ही जाता है कि ठगाई, छल, धोखा और छद्म के लिए रंग बदलना एक अनिवार्य कर्म है। सुना है कि प्राचीन काल में राजाओं के अनेक जासूस रंग बदलकर जासूसी किया करते थे ।देवकीनंदन खत्री का छः खंडों में विभाजित प्रथम हिंदी उपन्यास ‘चंद्रकांता संतति ‘ रंग – बदल जासूसी और तिलस्म के कारनामों से भरा पड़ा हुआ है। पहले के कुछ श्रेष्ठ राजा गण वेश बदलकर अपनी प्रजा का हाल- चाल लिया करते थे औऱ असहायों और दीन – दुखियों की सहायता भी किया करते थे। आज भी इसका प्रभाव वर्तमानकाल के नेताओं पर देखा जा सकता है ,जो जनता का दुःख-सुख जानने के लिए नहीं, वरन उसका शोषण करने के लिए बगबगे(बगले जैसे)वेश धारण करने लगे।
यदि गहराई के साथ अध्ययन किया जाए तो निष्कर्ष यही निकलता है कि रंग बदलने की कला मुख्य रूप से किसी अन्य को छलने,ठगने, शोषण करने और अपना उल्लू सीधा करने के काम आने वाली प्रमुख कला है।आज के युग में क्या शिक्षा,क्या व्यवसाय क्या धर्म और क्या राजनीति ; देश और समाज का ऐसा कोई क्षेत्र नहीं है ,जहाँ इसका विस्तार न हुआ हो।शिक्षा जैसा पवित्र कार्य भी इसी रंग-बदल कला के कारण धंधा बनकर रह गया है।कमाई का कोरों का खजाना बन गया है ,जहाँ मात्र शिक्षा को छोड़कर किताबें, कॉपी, पेंसिल, पैन, पूरी स्टेशनरी, यहाँ तक कि जूते ,कपड़े ,ड्रेस आदि सब कुछ एक ही छत के नीचे मिल जाता है।यदि नहीं है तो वहाँ मात्र शिक्षा नहीं है।
यदि व्यवसाय की बात की जाए तो वहाँ भी रंग-बदल का रंग-बिरंगा बाजार सुनामी में डूबा हुआ है और उपभोक्ता की जेब काटने के हजारों कारनामे करता हुआ आकंठ निमग्न है ।मात्र व्यवसाय ही रंग- बदल का इतना बड़ा क्षेत्र है कि इस विषय पर पृथक रूप से शोध ग्रंथ लिखे जाने की आवश्यकता है।राजनीति का तो रंग – बदल का खुला खेल है। कहीं कोई पर्दा नहीं। राजनीति के तंबू के नीचे धर्म, शिक्षा, समाज सेवा, व्यवसाय आदि सभी की फसलें भरपूर उपज दे रही हैं।धर्म की रंग – बदल कला की ओट में आशाराम बापुओं, राम रहीमों और न जाने कितने रंगे हुए सियारों के आश्रम फल -फूल रहे हैं।
देश का धार्मिक नहीं धर्मांध मनुष्य स्वयं आ बैल मुझे मार की कहावत को सार्थक करता हुआ दिखाई दे रहा है। इतना सब देखने – सुनने के बाद बेचारा खरबूजा क्या मुकाबला करेगा इस बहु रंगिया आदमी से ;जो दसों दिशाओं में अपने रंग-रंग के परचम लहरा रहा है। वह तो बेचारा व्यर्थ ही रंग बदलने के लिए बदनाम हो गया। बद अच्छा बदनाम बुरा।इस आदमी ने तो रंग बदलने में गिरगिट, मेढक, साँप के साथ -साथ बेचारे खरबूजे को भी खेत में ही छोड़ दिया।बद अच्छा हो गया, औऱ बदनाम होने के लिए खरबूजा खेत में खाम खाँ खाँसता रह गया।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’