नवगीत – कोंपल नई खिली
बूढ़ा बचपन
लाया यौवन
कोंपल नई खिली।
जितना छनता
बचपन छिनता
बढ़ता मैल गया।
हर विचार की
दुर्गति होती
चलता खेल नया।।
मन में कचरा
भरता बदबू
आत्मा नित्य छिली।
चक्षु श्रोत्र के
सब वातायन
काम -रसों के प्यासे।
चलती नारी
को तकते वे
लगा छद्म -रस लासे।।
भीतर की वह
गंध विकल है
नारी नहीं मिली।
अंतर्जाल एक
सम्मोहन का
कहता जग बेचारी।
आ जा बैल
मार सींगों से
मन मोहिनी सुनारी।।
तेरा पूरक
तू भी मेरी
पाटल सुमन लिली।
हाड़ -माँस की
आवृत काया
रस का परस नया।
ऋण-धन ध्रुव का
संगम पल का
जाने कहाँ दया।।
शूकर – कूकर
नर – नारी सब
कामुक ढील ढिली।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’