गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

कितने यहाँ पे देखना दानव टहल रहे
क्यों नफ़रतों की आग में इंसान जल रहे

राहें सभी काँटों भरी होती चली गयीं
हर भावना को सोच लो वो तो कुचल रहे

परवाह है किसको यहाँ अब देख लो सभी
सब प्रेम को छोड़े यहाँ अरमान तल रहे

करते वफ़ाई हम रहे वो ग़ैर के हुये
चोरी – छुपे संदेश भेजे देख छल रहे

छाया बुढ़ापा पर चले अब प्यार ढ़ूँढ़ने
वो इश्क़ के बढ़ते नज़ारे आज खल रहे

लिखने लगे आँखें मिलीं तो प्रेम – ग्रंथ वो
रोका वहीं उनको इरादे रख अटल रहे

हमने भरोसा था किया वो बेवफ़ा बने
बन कर वही आस्तीन के तो साँप पल रहे

ये कश्मकश कैसी रही चुभते गये शूल
हटना पड़ा पीछे तभी वो हाथ मल रहे

ढाते रहे वह ज़ुल्म तो यह ज़िंदगी गली
आतंकवादी बन खूब ही आज असफल रहे

नागिन बनी फुफकारने जो ज़िंदगी लगी
सारे कुकर्मों के सुनो फल आज गल रहे

रजनी तबाही कर चली काली रही यहीं
बिखरी अभी जो ज़िंदगी तब वो सँभल रहे

— रवि रश्मि ‘अनुभूति’