कविता

मंज़िल की ओर

खुली हुई आँख के सपनों को
साकार किया जाए
घर से निकले हैं, तो बस
घर पर इतना उपकार किया जाए।
माता-पिता की आशा को
बहन-भाई की अभिलाषा को
नव-नव आकार दिया जाए।
भ्रम को जीवन में लाकर
भ्रमित नहीं होना है
निराशा आती है
तो आपा नहीं खोना है
निराशा के क्षण में
लक्ष्य एक किया जाए।
जीत रहे सदा प्रतिमान बनकर
हार रहे मेहमान बनकर
प्रतिपल मंज़िल की ओर
इस-क़दर बढ़ा जाए।
— महेन्द्र मद्धेशिया

महेन्द्र कुमार मद्धेशिया

छात्र; दीनदयाल उपाध्याय गोरखपुर विश्वविद्यालय, गोरखपुर पता; ग्राम - दुल्हा सुमाली, टोला - सलहन्तपुर, पोस्ट - ककरहवॉ बाजार, सिद्धार्थनगर- 272206 (उत्तर प्रदेश) सम्पर्क ; 7266021791