लघु व्यंग्य – नहले पे दहला
“हलो… स्वीट हार्ट।” अंजली को अकेली देख मनचला महेश छेड़ने के लिहाज से सीटी मारते हुए कहा।
“आँ… क्या हम परिचित हैं ?” अंजली बिना विचलित हुए बोली।
“परिचय का क्या है डार्लिंग, वह तो यूँ हो जाएगा, यूँ…।” चुटकी बजाते हुए बोला महेश।
“हूँ… मुझे लगता है कि हमारी मुलाकात पहले भी हो चुकी है।” अंजली सोचने की एक्टिंग करते हुए बोली।
“अच्छा… हुई होगी जी। फिर तो हम परिचित निकले।” महेश खुश हो अपनी कॉलर को थोड़ा स्टाइल से ठीक करते हुए बोला।
“वही तो… मैं याद करने की कोशिश कर रही हूँ कि आपसे या आपके शक्ल के किसी बंदे से कहाँ मुलाकात हुई थी ?” अंजली उसकी उत्सुकता बढ़ा रही थी।
“वाओ… ग्रेट… प्लीज़ जल्दी से याद करो कि हमारी मुलाकात पहले कहाँ हुई थी ?” अब उसकी व्याकुलता बढ़ने लगी थी।
“अच्छा ये बताइए कि क्या आप कलर्स मॉल जाते हैं ?” अंजली पूछी।
“हाँ…, वहाँ तो मेरा लगभग रोज का आना-जाना है।” वह झूठ बोला, जबकि साल में एकाध बार ही जाता होगा।
“वहाँ जो लेविस का शोरूम है ना…”
“हाँ हाँ, उसका जो मालिक है न, वह तो मेरा कॉलेज टाइम का फ्रैंड है।” वह अंजली की बात बीच में ही काटते हुए सरासर झूठ बोल गया।
“वाओ… गुड… आपने देखा होगा कि उसके ऑनर ने शोरूम के बाहर दो पुतले खड़े कर रखे हैं।…”
“हाँ-हाँ, उन्हें तो मैंने ही पसंद कर खरीदवाया था। क्या है कि मेरा फ्रैंड कुछ भी नया करता है तो मेरी पसंद-नापसंद का पूरा ध्यान रखता है। ऑफ्टरआल गहरी दोस्ती जो है हममें।” अंजली की बात बीच में ही काटते हुए वह शेखी बखारने लगा था।
“तभी…।”
“देखा… आपको भी पसंद आया न ? मतलब ये कि हमारी च्वाइस भी कितनी मिलती-जुलती है न ?” वह फिर बीच में टपक पड़ा।
“च्वाइस नहीं, मैं आपको बताना चाह रहा हूँ कि उन पुतलों की शक्ल आपसे हू-ब-हू मिलती है।” मुस्कुराते हुए अंजली बोली।
महेश मानो आसमान से गिरा। अब वह बगलें झाँकने लगा था।
— डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा