प्यार
रविवार का दिन था। सुबह के समय महेश जी शहर के अपने सरकारी क्वार्टर के ड्राइंग रूम में बैठे श्रीमती जी के साथ अखबार पढ़ते हुए चाय का मजा ले रहे थे।
उसी समय उनका बारह वर्षीय बेटा राजा आकर उनसे आग्रहपूर्वक बोला, “पापा, आज का खाना आप ही बनाइए न ? प्लीज पापा ?”
“क्यों बेटा, क्या तुम्हारी मम्मी आज खाना नहीं बनाएँगी ?” महेश जी ने यूँ ही पूछ लिया, हालांकि वे अक्सर छुट्टियों में खाना बनाया करते हैं।
“ऐसी बात नहीं है पापा। मैं रोज-रोज मम्मी जी के हाथ का बनाया खाना खा-खाकर बोर हो गया हूँ। आपके हाथ के बने खाने की तो बात ही निराली है। आपको पता है पापा, जिस दिन आप मेरा टिफिन तैयार करते हैं न, स्कूल में मेरे ग्रूप के सारे फ्रैंड्स उसे पल भर में ही चट कर जाते हैं। आपके हाथों में जादू है।” वह चापलूसी भरे अंदाज में कहने लगा।
“हाँ, हाँ मैं ही बकवास खाना बनाती हूँ। अब से रोज तेरे पापा ही खाना बना बनाकर तुझे खिलाएँगे और तेरा टिफिन भी वे ही बनाएँगे।” श्रीमती जी का मूड उखड़ने लगा था।
“क्या मम्मी आप भी न। छोटी-सी बात का बतंगड़ बना रही हैं। मैंने ये तो नहीं कहा कि आप खाना बुरा बनाती हैं।” राजा बात को संभालने की कोशिश कर रहा था।
“मतलब तो वही हुआ न ? मैं तुम लोगों की सेहत का ख्याल रखते हुए कम तेल और मिर्च-मसाले का उपयोग करती हूँ। जितना तेल और मिर्च मसाले मैं तीन दिन में उपयोग करती हूँ, उतना तुम्हारे पापा एक बार में ही कर देते हैं। स्वादिष्ट खाना तो बनेगा ही न। जब बीमार पड़ोगे, तब समझ में आएगा।” श्रीमती जी लताड़ने लगी थीं।
अब महेश जी को बीच में बोलना ही पड़ा, “अच्छा बाबा, अब बहस बंद करो। आज का खाना मैं ही बना दूँगा। आज तुम्हारी मम्मी की छुट्टी। फिलहाल मैं जा रहा हूँ बाथरूम। जल्दी से नहा-धोकर, फ्रेश हो जाता हूँ। फिर खाना भी तो बनाना है।”
महेश जी तौलिया लेकर बाथरूम में घुस गये।
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मैट्रिक की परीक्षा पास करने के बाद ही महेश आगे की पढ़ाई पूरी करने के लिए शहर आ गया था। निम्न-मध्यमवर्गीय परिवार से होने के कारण वे किसी ठीकठाक होटल या हॉस्टल का खर्चा वहन करने में सक्षम नहीं थे। इसलिए वहाँ वे अपने एक सहपाठी मित्र के साथ ही किराए के मकान में रह कर पढ़ाई करते थे। वे लोग अपने लिए खाना खुद ही बनाकर खाते, झाड़ू-पोंछा और बर्तन धोने का काम भी खुद ही कर लिया करते थे।
कॉलेज की पढ़ाई के बाद उसे शहर में ही अच्छी-सी सरकारी नौकरी मिल गई और रहने का सरकारी बंगला भी। शादी के कुछ ही दिन बाद उसकी पत्नी भी शहर में आ गई। माँ-बाबू जी गाँव में ही रहना चाहते थे, जहाँ उनके दो और बेटे भी रहते हैं। महेश अक्सर तीज-त्योहार में ही सपरिवार अपने गाँव जा पाता था।
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“क्यों रे पापा के चमचे ? हमेशा पापा की चापलूसी में लगा रहता है।” मम्मी शिकायती लहजे में बोल रही थीं।
“क्या मम्मी आप भी न, कुछ समझती तो हो नहीं, बिना मतलब मुझे ताना मारती रहती हो। मैं तो आपकी ही भलाई की बात कर रहा था।” राजा मम्मी को समझाते हुए बोल रहा था।
“मेरी भलाई की बात ? सो कैसे ?” मम्मी ने आश्चर्य से पूछा।
“देखिए, आज दिन कौन – सा है ?” राजा ने पूछा।
“सन्डे।” मम्मी ने बताया।
“कल क्या दिन था ?” राजा ने फिर से पूछा।
“सटर डे, पर तू ये क्यों पूछ रहा है मुझसे ?” मम्मी उलझन में पड़ गई थी।
“वही तो, आप कोई बात जल्दी से समझती नहीं और गुस्सा मुझ पर उतारती हैं।” राजा बोला।
“अच्छा बता इस सटर डे, सन्डे में मेरी क्या भलाई की है तूने ?” मम्मी ने फिर से पूछा।
“मम्मी, कल यानी सटर डे को पापा छुट्टी मना चुके। दिनभर न्यूज़ पेपर, टी.व्ही., चाय, नास्ता, मोबाइल…..। आज भी वही करते। सो मैंने उन्हें खाना बनाने की फरमाइश करके आपकी आज की छुट्टी करा दी। इस बहाने आपको भी एक दिन की छुट्टी मिल जाएगी। थोड़ी-सी तारीफ कर देने से पापाजी भी प्यार से हमारे लिए खाना बनाएँगे।” राजा अपनी बड़ी-बड़ी आँखें गोल-गोल करते हुए बोला।
“वाओ, व्हाट ए फैंटेस्टिक आइडिया। तू तो बड़ा समझदार हो गया है मेरा राजा बेटा।” मम्मी ने उसे गले से लगा लिया था।
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बाथरूम में बैठे-बैठे माँ-बेटे की पूरी बातें सुनने के बावजूद महेश जी ने कभी यह जाहिर होने नहीं दिया कि उन्होंने उनकी बातचीत सुन ली है। वे बेटे की सोच और मम्मी के प्रति स्नेह भाव देखकर अभिभूत हो गए थे।
उन्होंने अतिरिक्त स्नेह और उत्साह से खाना बनाया।
– डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़