भविष्य की आपदा है आज की मुफ्तखोरी
आजकल देश में सर्वाधिक चर्चा इसी बात की है कि कल्याणकारी राज किसे कहा जाए। सामाजिक सरोकारों के निर्वहन के नाम पर लोगों की जरूरतें पूरी करने के लिए मुफ्त में सब कुछ बाँटते चले जाएं और इसका लाभ पाते हुए लोकप्रियता की आईसक्रीम का स्वाद लेते हुए सत्ता पर काबिज होकर राजसुख भोगने के सारे रास्तों पर अपना प्रभुत्व जमाते हुए अपने दिन-महीनों और सालों को भोग-विलास के साथ अनुकूल बनाते रहें। इसका फायदा यह है कि भविष्य के प्रति बेपरवाह, अदूरदर्शी और संवेदनहीन बनते हुए सब कुछ अपने हक में भुनाते रहें।
और दूसरा रास्ता यह है कि लोगों को उनकी समस्याओं और अभावों से मुक्ति दिलाते हुए विकास की दिशा में मोड़ा जाए और इसके लिए जनता को उनके हुनर और योग्यता के अनुरूप किसी न किसी प्रकार के काम से जोड़ा जाकर उन्हें जिन्दगी भर के लिए आत्मनिर्भर बनाया जाए।
लेकिन हमारे राजनेता अब सामाजिक सरोकारों के नाम पर सरकारी पूंजी लुटाने में अधिक विश्वास रखती हैं क्योंकि इससे जनता इनकी प्रशंसक होकर चुनाव में आसानी से जीता देती है। इसके लिए न किसी चुनाव घोषणा पत्र का कोई महत्त्व रहता है, न नीति-नियमों, और न ही किसी विचारधारा का।
हैरत की बात ये है कि ऐसा वे सरकारें कर रही हैं जिनके राज्य पर अनाप-शनाप कर्ज चढ़ा हुआ है, इनका ब्याज चुका रही हैं और दूसरे कामों के लिए बजट की कमी की स्थितियां दिखती रही हैं। करदाताओं की ओर से प्राप्त राजस्व को अपने चुनावी लाभों के लिए खैरात के रूप में वितरित कर देने की इस परम्परा ने कर्मयोग से अर्थार्जन के सारे सिद्धान्तों को ध्वस्त कर दिया है।
समझदार लोग अच्छी तरह जानते हैं सरकार चलाने वाले नेताओं की नीयत सामाजिक सरोकारों का निर्वहन और सेवा नहीं होकर केवल वोट बटोरने की तरकीब ही है अन्यथा ऐसी सेवा अंतिम वर्ष में चुनाव से ठीक पहले ही क्यों की जाती है। इससे पहले के वर्षों में ऐसा आइडिया क्यों नहीं आता।
एक तरफ सरकारें मुफ्त का बाँटने में जुटी हैं वहीं दूसरी ओर समाज की ओर से हम दान-धरम के नाम पर उन लोगों को पनपा रहे हैं जो बिना कुछ किए वैभव चाहते हैं। हमारा भी दोष कोई कम नहीं।
देश में बहुत बड़ा वर्ग ऐसा है जिसके श्रम का उपयोग किया जाकर कई समस्याओं का खात्मा किया जा सकता है, विकास के कई धरातल मजबूत हो सकते हैं और लोगों को श्रम की मुख्य धारा से जोड़कर स्वाभिमानी जिन्दगी दी जा सकती है लेकिन हमारी, और सिर्फ हमारी गलतियों की वजह से समाज का एक बहुत बड़ा तबका हरामखोर होता जा रहा है और श्रम को भुला बैठा है।
हमारे अपने इलाके से लेकर देश भर में कोने-कोने तक श्रम से मुँह मोड़ बैठे ऐसे हजारों-लाखों लोगों की भीड़ छायी हुई है जो बिना कुछ परिश्रम किए पैसा कमाना और बनाना चाहती है और इसके लिए वह अभ्यस्त हो चुकी है।
एक बार जब किसी भी परिश्रमहीन और आलसी आदमी को बिना श्रम का पैसा मिलने लगता है तब वह मेहनत से जी चुराने लगता है और फिर उसके जीवन का यही ध्येय हो जाता है कि किस तरह लोगों की सदाशयता और दया-करुणा का फायदा उठाकर बिना कुछ किए ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाया जाए।
हमारी हर दर्जे की मूर्खताओं, धर्म और दान की गलत-सलत परिभाषाओं और अंधविश्वासों ने समाज में हरामखोरों को प्रश्रय ही नहीं दिया बल्कि एक ऐसी संस्कृति को जन्म दे डाला है जो वंश परंपरा से हरामखोरी और निकम्मेपन का पर्याय बन चली है और इस संस्कृति में बिना पूंजी के ऐसा व्यापार चलने लगा है कि बड़े-बड़े धनाढ्य भी इसके आगे बौने हो चले हैं।
देश में कई समस्याओं के पीछे श्रमहीनता सबसे बड़ा कारण है और ऐसे में अपने इलाके की नदियों, नालों या क्षेत्रों की साफ-सफाई हो, कोई से सेवा कार्य हों या समाज के लिए उपयोगी गतिविधियां हों, हमारे आस-पास हर कहीं ऐसे लोगों की भीड़ जमा हो गई है जो मुफ्तखोरों को प्रश्रय देने वाली हरामखोर संस्कृति की संवाहक है और कोई काम नहीं करती, सिवाय लोगों की सद्भावना और मानवीय संवेदनाओं को भुनाने के।
आज देश का कोई सा कोना हो, कोई धर्मस्थल हो, दफ्तरों के परिसर हों, बस-रेल्वे स्टेशन हो, अन्न क्षेत्र हो या फिर कोई सी गली से लेकर सर्कल, चौराहा और संकरे मार्ग से लेकर फोर लेन, सिक्स लेन हो या देश के मशहूर पर्यटन एवं दर्शनीय स्थल। हर तरफ भिखारियों का जमावड़ा है जो दिन-रात भीख मांग-मांग कर अपने बैंक बेलेन्स बढ़ा रहे हैं।
इन सभी प्रकार के भिखारियों की वजह से देश भ्रमण पर आने वाले विदेशी मेहमानों को भी लगता है जैसे भारत भिखारियों का देश है। कोई क्षेत्र या कोना ऐसा नहीं बचा है जहाँ भिखारी न हों।
देश का बहुत बड़ा वर्ग आज भिखारियों का है जिनकी श्रम क्षमता का उपयोग रचनात्मक कार्यों में किया जा सकता था लेकिन हमारी धर्मभीरुता, हद दर्जे की बेवकूफियों और दान-धर्म के मर्म को नहीं समझ पाने की गलतियों की वजह से हमने देश के एक बहुत बड़े वर्ग को नाकारा बना रखा है जो अपने ही संसार में रमा हुआ है।
सेवा, परोपकार, दान-धर्म, दया, करुणा, सामाजिक सरोकारों आदि के मूल तत्वों को हम भुला बैठे हैं और भिखारियों के नाम पर हरामखोरों को प्रश्रय दे रहे हैं। समाज को इस मनोवृत्ति ने इतना पिछड़ापन दिया है कि इसका खामियाजा हमारी आने वाली पीढ़ियां भुगतती रहेंगी।
जहाँ-तहाँ किसी न किसी देवी-देवता के नाम पर भीख मांगी जा रही है, दान-धरम की बातें कही जा रही हैं और मन्दिरों, आश्रमों में निर्माण के नाम पर पैसा जमा किया जा रहा है, हरामखोरों की फसल को खाद दी जा रही है और वे सारे कर्म हो रहे हैं जिनकी वजह से देश में भिखारियों का रुतबा बढ़ता जा रहा है। तरह-तरह के वेश में भिखारी हमारे सामने हैं।
श्रम को दरकिनार कर भिखारियों को बिना कुछ परिश्रम किए अनाप-शनाप प्राप्ति होने की परंपराओं ने समाज के भीतर भी भीख की कई सारी परिष्कृत और आधुनिक विधियों को पनपा दिया है। आज हर कोई चाहता है कि बिना परिश्रम किए वह मालामाल हो जाए। और यही कारण है कि भीख अब कई रास्तों से दी और ली जाने लगी है। इससे समाज में हरामखोरी का प्रभाव बढ़ता जा रहा है।
हमारे सामने कई लोग ऐसे दिखते हैं जो परिश्रम के नाम पर कुछ नहीं करते, न इनके काम-धंधों के बारे में किसी को कुछ पता है। उनके पास धन-संपदा इतनी आ रही है कि हर किसी को आश्चर्य होता है।
नेताओं के आगे-पीछे घूमते रहने वाले, जयगान करते हुए उनके साथ बने रहने वाले और चमचों और चापलूसों के रूप में अपनी भूमिका निभाते रहने वालों की समृद्धि का राज जानने की कोशिश करें तो इस रहस्य का पता लगाना कोई मुश्किल नहीं है। आखिर यह सम्पत्ति कहाँ से आयी। बिना परिश्रम के अपने चातुर्य और बौद्धिक कुटिलताओं, भय और दबावों से अर्जित की गई धन-दौलत भी भीख से कम नहीं होती।
जहाँ परिश्रम नहीं, पुरुषार्थ नहीं, वहाँ से प्राप्त हर प्रकार की कमाई हराम की ही है और इसे भीख से ज्यादा कुछ नहीं समझा जाना चाहिए। आज समाज में कई प्रकार की समस्याएं हैं। पढ़ने के इच्छुक बच्चों के पास पाठ्यसामग्री और संसाधनों का अभाव है, मरीजों के लिए चिकित्सा सेवाओं का अभाव है, कई लोग ऐसे हैं जिनके पास खाने-पहनने और रहने को कुछ नहीं है, रोजगार का अभाव है।
ऐसे ही समाज में विधवाओं और परित्यक्ताओं, गरीबों के पास स्वाभिमान के साथ जीने लायक संसाधन नहीं हैं। इन लोगों के लिए हम धेला भी खर्च नहीं कर पा रहे हैं बल्कि इन समस्याओं की ओर मुँह मोड़े बैठे हैं।
दूसरी ओर ऐसे कमीन लोगों पर धन लुटा रहे हैं जो हरामखोर हैं, समाज के शत्रु हैं और ऐसी संस्कृति को प्रश्रय दे रहे हैं जहां हरामखोरी ही सभी का ईष्ट है और यह हरामखोरी ही है जो बाद में लूट-खसोट की संस्कृति में परिवर्तित होकर समाज के लिए नासूर बन जाती है।
आज जो भी अपराध हो रहे हैं वे सारे के सारे हरामखोर लोगों द्वारा हो रहे हैं जो बिना श्रम किए औरों को किसी न किसी तरह उल्लू बनाकर पैसा वसूलने के लिए पैदा हुए हैं। कभी धर्म और दान के नाम पर, कभी समाज की सेवा के नाम पर, कभी किसी और बहाने।
मुफ्तखोरी को त्यागें, हरामखोरों को पनाह न दें बल्कि उन्हें हतोत्साहित करें। ऐसे नाकारा और नुगरे, आलसी लोगों को किसी न किसी श्रम में लगाएं ताकि समाज का भला हो सके, और इनका भी। वरना वह समय दूर नहीं जब एक और बहुत बड़ा वर्ग प्रसूत हो जाएगा जिसका धर्म, कर्म और फर्ज सब कुछ हरामखोरी पर ही टिका होगा।
— डॉ. दीपक आचार्य