चमचागिरी जिन्दाबाद
वे कहते हैं
बन्द करो चमचागिरी
पर कैसे संभव है ऐसा कर पाना,
बातें कहना और राय देना अलग बात है
असली जिन्दगी जीना दूसरी बात।
उन बेचारों की तो
जिन्दगी ही
टिकी हुई है चमचागिरी पर,
वे छोड़ दें तो
मर ही जाएं बेमौत भूखों ,
फिर ये तमाशबीन चमचे नहीं होंगे
तो जमूरों और मदारियों की
वाह-वाह कौन करेगा,
ये पालतू चमचे ही हैं
जिनकी अमृत वाणी
और जयगान सुन-सुन कर
कुत्ते भी हिरण
और गधे भी हाथी-घोड़े हुए जा रहे हैं,
जन्मजात और नाकारा नुगरे भौंदू भी
लोकप्रिय होने लगे हैं,
सूअरों के जिस्म से
आने लगी है इत्र की महक
और
कुत्तों के मुँह से
होने लगी है संगीत की बरसात,
चमचागिरी ही है जो तय करती है
कुत्तों की बादशाहत
जिसके बूते ये ग्राम सिंह
अपनी और परायी गलियों में
शेर होने का दंभ भरते हैं।
ये चमचे न होते तो
उन बेचारों की तो जान ही निकल जाती,
कई अधमरे पड़े रहते,
कई बेजान होकर,
ये चमचे ही हैं
जो फूँकते हैं
इन बिजूकों में प्राण तत्व
और अहसास कराते हैं उन्हें जिन्दा होने का
जिनकी आत्मा कभी की मर चुकी है।
चमचे हैं वे भी,
आका हैं वे भी,
चमचागिरी के ही बूते
इन मुर्दों के हाथ-पाँव चलते हैं,
दिमाग चलते हैं,
खुद भी चलते हैं
और जमाने को भी चलाते हैं।
जुल्म न ढाओ इन चमचों पर
वरना वंश ही हो जाएगा समाप्त
उनके आकाओं का
अगर चमचागिरी न रही, चमचे न रहे।
फिर बिगड़ जाएगा स्वाद
अभिनय की दाल का
जिसके बूते वे
लोगों को दे रहे हैं
स्वाद का भ्रम
और शंकाओं का सलाद।
— डॉ. दीपक आचार्य