प्रकृति प्रदत सौंदर्य का अनुपम नज़ारा: बिलासपुर (हि.प्र.)
गुरदासपुर (पंजाब) से हमने बिलासपुर (हिमाचल प्रदेश) जाने का मन बनाया था। गुरदासपुर एक ऐतिहासिक तथा सीमावर्ती क्षेत्र है। कुछ किलोमीटर पर ही पाकिस्तान की सीमा है। रावी का दरिया दोनों देशों की सीमा को विभाजित करता है।
गुरदासपुर से हम सुबह 7.30 बजे के करीब घर से निकले। मैं और मेरा एक मित्र हरभजन बाजवा (प्रसिद्ध फोटोग्राफर एवं लेखक) ने गुरदासपुर से बस ली। यह बस मुकेरियां होशियारपुर से होती हुई श्री आनंदपुर साहिब लगभग चार घण्टे में पहुंची। श्री आनंदपुर विश्व प्रसिद्ध सिक्ख धर्म का दीर्घ धार्मिक स्थान है। यहां की बैसाखी विश्व प्रसिद्ध है। श्री गुरू गोबिन्द सिंह जी ने बैसाखी वाले दिन 1699 को तख्त श्री केसगढ़ साहिब श्री आनंदपुर साहिब में पांच इलाही अमृत बाणियों का पाठ करके ‘खंड्डे-बाटे’ का पवित्र अमृत तैयार किया तथा विभिन्न धर्मों जातियों तथा कुर्बानी देने वाले पांच श्रद्धालुओं को सिंह सजाकर खालसा आकाल पुरख फौज की सृजना की थी। यहां खाना खाने के बाद हमने आनंदपुर से बिलासपुर की बस ली। लगभग चार घण्टे के सफर के पश्चात हम बिलासपुर पहुंचे। आनंदपुर से बिलासपुर तक का सारा रास्ता पहाड़ी क्षेत्र है। पहाड़ों की प्रकृति, प्रपात, नदी, नाले, हरियाली, टेड़े-मेड़े बल खाते रास्ते भाव कि पहाड़ों की सौंधी-सौंधी मनभावन सुरभियों का अहसास।
बिलासपुर हम लगभग दोपहर बाद चार बजे के करीब पहुंचे। बिलासपुर बस स्टैंड के समीप ही सरकारी गैस्ट हाऊस है, वह हमें पसंद नहीं आया। फिर हमें वहां किसी ने बताया कि बस स्टैंड के थोड़ी दूर एक सराय है। हम वहां गए, लगभग 150 से 200 रूपए तक के कमरे थे, परन्तु बाथरूम अलग थे, सफाई नहीं थी। वहां से हमने थ्रीव्हीलर किया और आधा किलोमीटर की दूरी पर हमें एक होटल पांच सौ रूपए में मिल गया। होटल अच्छी जगह पर चौक के बीच वाले क्षेत्र में था। वहां सामान रखा, कैमरे लिए और बाहर निकल आए। सौ रूपए में थ्री व्हीलर किया और जा पहुंचे प्रसिद्ध स्थान गोबिंद सागर झील के किनारे पर। दूर-दूर तक स्वच्छ पानी नज़र आ रहा था। यहां तक नज़र जाती पानी ही पानी। जैसे कोई बहुत बड़ा समन्दर हो। सूर्य आसमान के घरौंदे में छुपने की तैयारी में था। लालिमा झील के ऊपर अपना बदन समर्पित कर रही थी। चारों तरफ भव्य दृश्य। कुछ फोटोग्राफ लिए। वाह! मन ही मन मैं सोचने लगा पानी हृदय को, मानव को क्यों इतना अच्छा लगता है। पानी से मानव को क्यों गहरा मोह है। तब मुझे श्री गुरू ग्रंथ साहिब में पानी को उत्त्तमोत्तम बताते हुए एक श्लोक में कहा गया है ‘पवन गुरू पानी पिता माता धरत महत्त।’ः भाव कि पवन गुरू है, पानी पिता है तथा माता धरती है।
ऋग्वेद में लिखा है- रमं मे गंगे! यमुने सरस्वति! शुतुद्रि! स्तोमं सचता परूष्वया। और यर्जुेवेद में कहा गया है- आपो हिष्ठा मयोभुवस्ता न ऊर्जे दधातन! महे रणाय चक्ष से।। यो वः शिवतमो रसस्तस्य भाजयनेह न. आदि। भाव कि हे श्रद्वेय जल! आप सभी प्रकार के सुखों को देने वाले हैं आदि। अदम्यः गात्राणि शुद्धन्ति भाव पानी से शरीर शुद्ध होते हैं। वेद में लिखा है आयो हिष्ठा भयोभुवः भाव कि जल मंगलकारी है।
मेरे साथी ने तो छोर पर ही खड़े रहने का मन बनाया परन्तु मैं इंजन वाली नाव (बोट-किश्ती) में बैठ गया। कुछ और भी बाहरी राज्यों के यात्री थे। छुक-छुक की आवाज़ से इंजन वोट चलने लगी मैंने कई भव्य चित्र खींचे। शाम दुल्हन सी चित चितवन हो रही थी। सुर्ख अंगारों की भांति सूर्य की लालिमा झील के पानी में उतर आई थी। पानी पर सूर्य के प्रतिविम्ब की झिलमिलाहट एैसे प्रतीत होती है जैसे झंकृति की लम्बी कतार नाच रही हो। जैसे पानी के ऊपर किसी गोरी की लाल चुनरिया हिचकोले खा रही हो। अति सुन्दर मर्मस्पर्शी गुलचा झिलमिल दृश्य।
नाव की ज्यों-ज्यों दूरी बढ़ती जाती बिलासपुर शहर की सुन्दर कृति किसी शिल्पकारी का अजूबा सा नज़र आती। सूर्य डूबने से पहले यह संदेश दे रहा हो कि जीवन की यह सच्चाई है। डूबता सूर्य किसी आशीर्वाद सा नज़र आता है। अलविदा शुचिता जीवन की प्रतिबद्धता। सूर्य की अलविदा में चांद सितारे जन्म लेते हैं। रात को दुल्हन सा बना देते हैं। पानी के ऊपर सूर्य की लालिमा की खंडित भूमिका एैसे प्रतीत होती है जैसे किसी चित्रकार ने चित्रकारी की हो। नाव में बैठकर दूर-दूर के भव्य दृश्य किसी जन्नत को सृष्टि में उतार देते हैं। शांति और आनंद का आभास रूह तक उतर जाता है। शायद ओम तथा एक ओंकार की परिभाषा यहां से ही शुरू होती है।
लगभग 40 मिनट के बाद हम झील के दूसरे छोर पर पहुंच गए। नाव में बैठे एक परिवार से मित्रता हो गई थी। वे सभी मेरे बच्चों जैसे थे। अगर बिलासपुर जाकर आप हरड़ी गांव न देखें या गोबिन्द सागर झील न देखें तो आप ने कुछ नहीं देखा। हरड़ी गांव में हरड़ के प्रसिद्ध वृक्ष हैं। यहां की हरड़ भारतवर्ष में मशहूर मानी जाती है।
इस जिला में कोई भी प्राकृतिक झील नहीं। अब भाखड़ा बांध बनने के पश्चात गोबिन्द सागर झील अस्तित्व में आई है। यह झील अति आकर्षक तथा प्रकृति प्रदत सौंदर्य का अनुपम नज़ारा दर्शाती है। सौंदर्यीकरण की प्रतिबद्धता का जन्नत। यह झील अनिवर्चनीय आनंद प्रदान करती है। इस के इर्द-गिर्द खूबसूरत दृश्यावलियाँ अपना स्परूप समेटे हुए हैं। शंक्वाकर पहाड़ियों के भव्य दृश्य। मौज मस्ती की एक दुर्लभ प्यारी जगह। चारों ओर हरीतिमा का सुन्दर नज़ारा। सुबह-सवेरे सूर्य उदय तथा अस्त होने का दृश्य झील को चार चांद लगा देता है। शाम को चन्द्रमा की लालिमा का दृश्य, दूर से नज़र आता बिलासपुर जगमग करती लाईटों की झिलमिलाहट का भव्य दृश्य। सवेर से शाम (संध्या) तक सूर्य की परछाई की लम्बी लम्बी कतारें पानी को, झील को जन्नत का रूप दे देती हैं। सूर्य डूबने का, शाम का दृश्य सौहार्दरूपी हो जाता है। हवा की हल्की-हल्की सुरसरियां मन को भाती हैं। झील में इंजनवाली तथा चप्पुओं वाली नाव चलती है। नाव (किश्ती) में बैठकर झील की लम्बी यात्रा करने का अपना ही आनंद होता है। झील के पार एक छोटा सा गांव है। झील के छोर पर पार वाले क्षेत्र में एक खरपैल की छत्त वाली झुग्गीनुमां दुकान है। लोग नाव पर यहां आते हैं और यहां का पलंगतोड़, बर्फी तथा पकौड़े बहुत स्वादिष्ट होते हैं। यहां चाय, भुजिया तथा कोल्ड ड्रिक्स भी मिलता है।
इस झील को देखने के लिए सभी वर्ग के लोग आते हैं, खासकर बच्चों के लिए यह स्थान अति दर्शनीय तथा मौज मस्ती करने वाला स्थान है। वैसे तो देश-विदेश के सैलानियों (पर्यटकों) की यहां भीड़ लगी रहती है। यहां झील एक जन्नत का प्रतिबिम्ब नज़र आती है।
इस झील का इतिहास इस प्रकार है कि मानव द्वारा निर्मित गोबिन्द सागर झील विश्व में सर्वाधिक विस्तृत झील है। यह कन्दरौर पुल से शुरू होकर पश्चिम में भाखड़ा बांध तक फैली हुई है। इस झील के अस्तित्व में आने से 256 गांवों के हज़ारों लोगों को उजड़ना पड़ा था। यह झील लगभग 168 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में विस्तृत है। इस झील की सलादड़ से भाखड़ा बांध तक लम्बाई लगभग 88 किलोमीटर है।
बिलासपुर में हम कुछ दिन रहे। एक दिन भाषा विभाग के दफ्तर गए तो वहां के प्रसिद्ध समाजसेवी डी.सी. शर्मा तथा प्रसिद्ध इतिहासकार एवं साहित्यकार रूप शर्मा जी से मुलाकात हुई। दोनों ने हमें बहुत सारे प्रसिद्ध स्थान दिखाए तथा रूप शर्मा जी ने हमें अपनी लिखी प्रसिद्ध पुस्तक ‘हिम दर्शण’ भी दी जिससे हमें बहुत सी जानकारी हासिल हुई।
गोबिन्द सागर झील के उत्तरी भाग में कोटधार तथा दक्षिण में नैनादेवी धार पूर्व से पश्चिम की ओर लगभग लम्बाकार में विस्तृत है। इसके साथ ही झील के पूर्व में बन्दला की धार तथा उत्तर-पश्चिम में झंझियार धार की धार बडोल नयनाभिराम दृश्य प्रस्तुत करती है। इस झील में प्राचीन बिलासपुर राज्य के अति उपजाऊ भाग तथा प्राचीन बिलासपुर बाज़ार जलमग्न हो गए। इस झील के दाएं किनारे धनीपुखर, चौन्ता, गाह गडियाना, जडड-गुलजार, ब्रहमीकलां, कोसश्यिां तथा बाएं किनारे जगात खान, नकराना, सलोओ, माकड़ी और भाखड़ा गांवों की उपजाऊ भूमि प्रमुख है। इसके अतिरिक्त ज़िला ऊना के रायपुर मैदान का बड़ा भू-भाग इसमें जलमान हुआ है। इस झील में गोबिन्द सागर झील नौकायन के क्षेत्र में पर्यटकों के आकर्षण का केन्द्र है। इसके अतिरिक्त मत्स्य उत्पादन में इस झील का विशेष स्थान है। वर्तमान में झील के दोनों किनारों पर बचे समतल भू-भाग कृषि उत्पादन में अग्रणी हैं। इस झील का नामाकरण गुरू गोबिन्द सिंह की स्मृति में गोबिन्द सागर रखा गया। भाखड़ा बांध का उद्घाटन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने किया था। उन्होंने अपने उद्घाटन भाषण में इसे पवित्र मन्दिर कहा था। गोबिन्द सागर झील का निर्माण 1952 में आरम्भ हुआ तथा 1962 में पूर्ण हुआ। इस निर्माण में 13000 मज़दूरों, इंजीनियरों ने अथक परिश्रम का अपना सहयोग दिया और 9 अगस्त, 1961 को झील में 256 गांवों की अमूल्य भूमि के साथ पुराना बिलासपुर नगर जलमग्न हो गया।
भारत वर्ष की मौलिक सांस्कृतिक धारा के अनुरूप हिमाचल प्रदेश का लोक जीवन पूर्णतया ऋषि और कृषि संस्कृति पर आधारित है। हिमाचल प्रदेश के स्थान नामों के अध्ययन में प्रदेश के लोक जीवन की यही छवि प्रकट होती है। सांस्कृतिक परम्परा से जुड़े यहां के स्थान नाम ऋषि संस्कृति के पोषक हैं तथा भौगोलिक संरचना में वर्णित अनेक स्थान नाम कृषि कार्य के विविध रूपों का ज्ञान करवाते हैं। अनेक स्थान नामों का सम्बंध ऋषि और कृषि के विविध रूपों का हिमाचल प्रदेश में सृष्टि की उत्पत्ति, स्थिति और संहार के प्रधान त्रिदेव क्रमशः ब्रह्मा, विष्णु और महेश की मान्यता सर्वत्र है। इन तीनों देवों के प्रदेश में अनेक मन्दिर हैं, लेकिन स्थान नाम यहां भगवान महेश शिव के नाम से अधिक जुड़े हैं।
महर्षि द्वैपायन ने कालांतर में वेदों का विषय अनुसार सम्यक विभाजन किया, तो वे बेदव्यास या महर्षि व्यास के नाम से प्रसिद्ध हुए। व्यास का नाम निवर्चन करते हुए कहा गया है कि वेदों का विशेष रूप से विषयानुसार विभाजन कार्य करने से लोक में व्यास नाम से विख्यात हुए। हिमाचल प्रदेश के बिलासपुर ज़िला के मुख्यालय बिलासपुर शहर को महर्षि व्यास की तपोभूमि होने का गौरव प्राप्त है। इसीलिए इस स्थान का नाम व्यासपुर पड़ा, जो बाद में बदलकर बिलासपुर हो गया।
बिलासपुर के साथ महर्षि व्यास के गहन सम्बंध को दर्शाती व्यास गुफा आज भी बिलासपुर में एक सशक्त साक्ष्य के रूप में विधमान है। यह प्राचीन गुफा वर्तमान बिलासपुर नगर के समीप श्री लक्ष्मी नारायण मन्दिर के नीचे ढांक के बीच गोबिन्द सागर के बायें तट की ओर देखी जा सकती है। इस गुफा का प्रवेश द्वार पर्यटन हेतु खुला है, लेकिन भीतर जाकर यह गुफा संकरी हो जाती है और इसमें झुककर चलना पड़ता है। यह गुफा 20-22 मीटर आगे जाकर पूरी तरह बंद हो जाती है। जनश्रुतियों में कहा जाता है कि प्राचीन समय में यह गुफा बिलासपुर शहर के पीछे खड़ी बादला धार के दूसरी ओर मारकण्डा में निकलती है और इसी गुफा मार्ग से व्यास और मार्कण्डेय ट्टषि परस्पर धर्म चर्चा के लिए भेंट किया करते थे। महर्षि व्यास ने व्यास कुण्ड, व्यास रिखि तथा व्यासर में भी तपस्या की थी।
ज़िला बिलासपुर की कहानी अदभुत एवं वीर गाथाओं से भरपूर है। इसका ज़िले के रूप में अस्तित्व भी रोमांचकारी है। 15 अगस्त, 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ। अंग्रेज जाते समय एक कुटिल चाल चलकर अपना बोरिया बिस्तर बांधकर इंग्लैण्ड चले गए। उस समय पूरे भारत में छः सौ के लगभग बड़-छोटी रियासतें थीं। हिमाचल प्रदेश के इस भू-भाग में भी छोटी-बड़ी रियासतें थीं। अंग्रेजों ने कुटिल चाल के अनुसार इन राज्यों के राज प्रमुखों को अपनी सुविधा के अनुसार भारत या पाकिस्तान में सम्मिलित होने या अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाए रखने की खुली छूट दी। तत्कालीन गृहमंत्री भारत सरदार बल्लभ भाई पटेल की चाणक्य नीति के कारण हिमाचल प्रदेश के इस भू-भाग में स्थित 30 रियासतों ने भारत संघ में विलय की स्वीकृति प्रदान कर 15 अप्रैल, 1948 को हिमाचल प्रदेश के नए राज्य के गठन में सम्मिलित होकर अपने स्वतंत्र अस्तित्व को समाप्त करने का निश्चय किया। परन्तु बिलासपुर, जिसका पुराना नाम कहलूर था, का राजा आनंद चन्द स्वतंत्र शासक बनने का सपना लेने लगा था। एक जनश्रुति के अनुसार वह पाकिस्तान के साथ भी सम्बंध बनाने के लिए प्रयत्नशील था। परन्तु सरदार बल्लभ भाई पटेल के आगे उसे शीघ्र ही नतमस्तक होना पड़ा। परिणामस्वरूप 12 अक्तूबर, 1948 ई. को बिलासपुर ने भी अलग अस्तित्व बनाए जाने की शर्त पर भारत संध में विलीन होने का निर्णय लिया। इस तरह 12 अक्तूबर, 1948 ई. को बिलासपुर राज्य बना तथा राजा आनंद चन्द इसका मुख्यायुक्त बना। वह प्रथम अप्रैल, 1949 ई. तक इस पद पर रहा। उसके पश्चात श्री चन्द छाबड़ा इस पद पर 3 नवम्बर, 1953 तक तथा मेजर जनरल हिम्मत सिंह जो हिमाचल प्रदेश का उपराज्यपाल था को बिलासपुर राज्य का अतिरिक्त कार्यभार सौंपा गया। अंत में प्रथम जुलाई, 1954 ई. को इस राज्य का विलय हिमाचल प्रदेश में कर दिया गया। उस दिन इसे नए ज़िले का नाम दिया गया। इस तरह प्रथम जुलाई, 1954 ई. को बिलासपुर हिमाचल प्रदेश का पाँचवा ज़िला बना।
बिलासपुर ज़िला 31°.12.30 उत्तरी अक्षांश से 31°.35.45 उत्तरी अंक्षाश तथा 76°.23.45 पूर्वी देशान्तर से 76°.55.40 पूर्वी देशान्तर के मध्य स्थित है। बिलासपुर ज़िले के उत्तर में मण्डी और हमीरपुर, पश्चिम में हमीरपुर और ऊना, पूर्व में सोलन तथा मण्डी तथा दक्षिण में सोलन ज़िला की सीमाएं स्पर्श करती हैं। यह पूर्व से पश्चिम की ओर लगभग 51 किलोमीटर लम्बा तथा उत्तर से दक्षिण की ओरे लगभग 43 किलोमीटर चौढ़ा है। इस का क्षेत्रफल 1167 वर्ग किलोमीटर है।
बिलासपुर मूलतः विशुद्ध पवर्तीय क्षेत्र है। इस के चारों कोनों में पर्वत श्रृंखलाएं दूर-दूर तक फैली हुई हैं। इनमें सात पर्वत श्रृंखलाएं प्रमुख हैं। इन सात श्रृंखलाआं के कारण इसे प्राचीन समय से सात धारों के देश के नाम से भी पुकारा जाता है। इसकी सात धारें हैं- नैणा देवी धार, कोट धार, झंझियार धार, बजेला धार, धार ब्यूण और धार स्त्रिऊण, वंदला धार, बहादुर पुर धार, रत्तनपुर धार।
बिलासपुर का जलवायु ग्रीष्म ऋतु में अति कठोर है। यहां बिलासपुर नगर का तापमान ग्रीष्म ऋतु में 40° सैलिसियस से ऊपर पहुंच जाता है। सर्दियों में नदी घाटी क्षेत्रों में तापमान 5° सैलिसियस तक पहुंच जाता है। बहादुर पुर धार के शिखरों पर तथा नैना देवी पर्वत शिखर पर हल्का हिमपात होता है।
यहां मानसून पवनों द्वारा ग्रीष्म ऋतु में वर्षा होती है। यहां सीर खड्ड घाटी में सर्वाधिक वर्षा होती है। औसत वर्षा लगभग 150 सैंटीमीटर वार्षिक है। सर्दियों में खाड़ी फारस की ओर से उठने वाले चक्रवातों से तीस सैंटीमीटर के लगभग वर्षा होती है।
यहां की प्रसिद्ध नदियां हैं- सतलुज नदी, खीर खड्ड, सिरयाली खड्ड, शुक्र खड्ड, सौली खड्ड, राओ खड्ड, गम्भरोला खड्ड, किरड़ खड्ड, रौहल खड्ड, दघोल खड्ड, कनौण का झरना, बाड़ी मझेरवां नाला, आली खड्ड, पटियुन्ज खड्ड, मणी खड्ड, रौहण खड्ड।
बिलासपुर ज़िला अपनी सात धारों, सतलुज, सीर और अली खड्ड के किनारे स्थित अति उपजाऊ घाटियों के लिए प्रसिद्ध है। इस ज़िला की प्रमुख घाटियां हैं- सतलुज घाटी, सीर खड्ड घाटी, दावीं घाटी। इस ज़िले में कई झीलें पाई जाती हैं- गोबिन्द सागर झील, लूहण्ड, रुकमणी कुण्ड, इत्यादि।
बिलासपुर में कई प्राचीन तालाब भी हैं जैसे- टोहबा कांलांवाला तालाब, दिओली का मछली पालन केन्द्र सरोेवर, रिवालसर, देहरा हटवाड़ का रिवालसर, नालटी का नौठा, नच्छरेटू, जगात खाना तालाब, त्रिवेण्ी साहिब जल स्त्रोत, मारकण्डे कुण्ड, संगीरठी नौण, बड़ा कृष्ण कुण्ड आदि जल स्त्रोत, झण्डुता का नौण, तालाब का नौण, स्वार घाट का तालाब, नालटी का नौण, कोट का सरोवर, चंझियार का तालाब, बुहाड़ का तालाब, शाहतर्लाए नौण, पंजगाई का तालाब, निऊँ का तालाब, छत्त छाई औहर, झण्डुता का तालाब, दरप्यूत और चोखना के तालाब, नाड़ी मझेवानीण, पंजगाई का नौण, करंगोडा की बाबडी, बनौला का नौण, मंगलौट जलकुण्ड, भजून का नौणा, निहारी का नौण, नंगीनाएं परनाल की वाई, नाला का पौणा।
ज़िला बिलासपुर में कई प्राचीन तालाब भी हैं। इन में प्रमुख हैं- विजयपुर, पनौल, बगेटू, मंदियाली ताल, खरला परपरीड़ी, सोलग, करलोटी, चोजना, दिओथ, धार भारथा, नाड़ी भराण, वाडी भगौर, कसोेल, गेहड़वी, वसन्ड, तुंगडी, साहिब तालाब चिन्जियार, कुण्ड जंलग तालाब एवं तीन अन्य तालाब चिन्जियार, सोहनी देवी, पालंग सिद्ध तालाब, चुराड़ी, शीतला माता मन्दिर जंगला, निऊँ, देहरा में रिवालसर, दिओली में तीन बड़े जलाशय, कोहलांवाला, झण्डूता, पथत्र (कालाछपड़ा), बाबा गोदडिया मन्दिर व्यून (बाबा डी) का जल स्त्रोत है।
बिलासपुर में 40 प्रतिशत भूमि पर वन है, जिसमें विभिन्न प्रकार की वनस्पति पाई जाती है। यहां के वनों में चील, खैर, तुनी, शीशम के वृक्ष, देवदार बहुतायत में पाए जाते हैं। इसके अतिरिक्त पीपल, वटवृक्ष, अंजीर, व्यूहल, शहतूत के पेड़ भी पाए जाते हैं।
राय साहिब अमर सिंह ने बिलासपुर राज्य के कुशल प्रशासन हेतु इसे दो तहसीलों तथा 12 परगनों में विभाजित किया। 2001 की जनगणना के अनुसार बिलासपुर की जनसंख्या 340735 इै। इस में 171074 पुरूष एवं 169661 महिलाएं थी। 2011 की जनगणना के अनुसार बिलासपुर ज़िला की जनसंख्या 382056 है। यहां पुरूषों की तुलना में 1000 पुरूषों के स्थान पर मात्र 915 महिलाएं हैं।
बिलासपुर में विभिन्न धर्मों के लोग रहते हैं। 2001 की जनगणना के अनुसार बिलासपुर ज़िला की जनसंख्या 340885 थी। इस में 331772 हिन्दु, 5938 मुस्लिम, 49 ईसाई, 2966 सिक्ख, 208 बोद्ध, जैन तथा 102 अन्य धर्मों के लोग थे।
वर्तमान ज़िला बिलासपुर की भाषा को ‘कहलूरी’ के नाम से पुकारते हैं। संस्कृत, प्राकृतिक हिन्दी, उर्दू, अंग्रेजी तथा पंजाबी के प्रचलित शब्दों के समावेश से कहलूरी भाषा प्रदेश में अपनी विशेष पहचान बना चुकी है। कहलूरी में लोकगीत, लोककथाएं और नाटक बड़े चाव से पसंद किए जाते हैं। कहलूरी में लोकगीत, कहलूरी बोली में उपन्यास, काव्य संग्रह, नाटक, कहानी संग्रह इसे विशुद्ध भाषा का स्वरूप दे चुके हैं। गुग्गा सम्बधि लोकगीत कहलूरी भाषा के प्रमाण हैं।
बिलासपुर में स्वास्थ्य सुविधाएं, सड़कें, पुस्तकालय, जड़ी बूटी उत्पादन, मत्स्व उत्पादन, नौकायन, उद्योग, विद्युतपरियोजनाएं, पशुपालन, वन्य प्राणि, खनिज, सीमेंट, पत्थर तथा चूना प्रचुर मात्रा में पाया जाता है। पंचायतें, ज़िला परिषद, फल उत्पादन, मशरूम उत्पादन, रेशम कीड़े, चावल, गेहूं, मक्की की फसलें, नम के चावल तथा दावी की शक्कर पूरी प्रदेश में प्रसिद्ध है। यहां में पमियाला के हरिमन शर्मा और मैहरी के चम्बेल सिंह ने सेब के पौधों का सफल आरोपन कर एक नया इतिहास रचा है।
बिलासपुर ज़िला की संस्कृति हिमाचल प्रदेश के अन्य ज़िलों तथा पंजाब की संस्कृति का एक अनुपम मिश्रण है। ऋग्वैदिक सभ्यता, पांण्डवों के क्रीड़ा स्थल, मुस्लिमों के आक्रमण, सिखों के उत्थान और पतन तथा अंग्रेजी सभ्यता का प्रभाव होते हुए भी कहलूरी संस्कृत अपनी प्राचीन संस्कृति को सुरक्षित रखने में सफल रही है।
बिलासपुर के लोग खान-पान के शौकीन हैं। यहां की धुली हुई दाल (धोतों दाल), मुकन्द वड़ियां दूर-दूर तक प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त त्योहारों पर विशेष पकवान बनाए जाते हैं। इनमें वैसाखी को सेऊआँ, दीपावली को चावल के आटे के ऐंकलू और ऐंकलियां प्रसिद्ध पकवान हैं। लोहड़ी पर्व पर खिचड़ी बनाई जाती है। प्रत्येक त्यौहार पर माह की दाल का विशेष महत्त्व होता है। इसके अतिरिक्त पलधा (कचालू की कढ़ी), मधरा (तले आलू), माहणी (आमों का खट्टðा), छच्छा (आम की चटनी) प्रसिद्ध है।
बिलासपुर के लोग तेज-तर्रार हैं। वह किसी भी व्यक्ति के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं करते, परन्तु इतना होने पर भी वह मिलनसार, हंसमुख तथा सहयोगी हैं। इस ज़िले में राजपूतों, ब्राह्मणों की संख्या अधिक है। घुमारवी विधानसभा क्षेत्र में ब्राह्मण बहुसंख्यक हैं। इसके अतिरिक्त कोट धार में गूजरों की अधिक संख्या है। सभी जातियों के लोग रहते हैं। बिलासपुर नगर में मुस्लिम तथा पंजाब के साथ लगते क्षेत्र में सिक्ख बड़ी संख्या में रहते हैं।
विभिन्न जातियों की भूमि बिलासपुर आपसी भाईचारे के लिए प्रसिद्ध है। 1947 ई॰ में पाकिस्तान बनने पर भी इस ज़िला के मुसलमानों को यहां से जाने नहीं दिया था और न ही यहां कोई जातीय दंगा भड़का था। आज हिन्दु-सिक्ख और मुसलमान पूरी निष्ठा के साथ इस ज़िला तथा हिमाचल प्रदेेश के विकास में सराहनीय कार्य कर रहे हैं।
यहां के प्रसिद्ध मेले हैं- नलवाडी अर्थात पशु मेला, बिलासपुर ज़िला का सबसे बड़ा मेला है। यहां की प्रदर्शनी और कुश्ती दंगल मुख्य आकर्षण हैं। और मेले जैसे- नैनादेवी मन्दिर मेला, मेला हरिदेव, मेला भ्याण, मेला चौगान, मेला बम, मेला मारकाण्डा, गुग्गा मेला, मेला झण्डा, मेला पंजगाई, मेला वच्छरेदु, गुग्गा भटेड़, देवी सगर्टी, मेला गुरू का लाहौर, मेला समतहन, घुमाटवीं मेला।
बिलासपुर इस भू-भाग का संबंध पाण्डवों के साथ या महाभारत के साथ बहुत घनिष्ठ रहा है। महाभारत कालीन शिशुपाल भी चन्देरी के शासक थे। इसी वंश में आगे जाकर राजा हरिचन्द के पुत्र वीरचन्द ने बिलासपुर राज्य की स्थापना की थी।
बिलासपुर के प्रसिद्ध मन्दिर- वैष्णव मन्दिर, लक्ष्मी नारायण मन्दिर निहारी, ठाकुर द्वारा समतैहन, ठाकुरद्वारा चान्दपुर, ठाकुरद्वारा धार, ठाकुरद्वारा ऋषिकेस, विष्णु पूजन, शिव मन्दिर, शक्ति मन्दिर, रागीरठी देवी मन्दिर, ब्रह्मपुख्ट, नैणा देवी, हरि देवी मन्दिर, सोहणी देवी मन्दिर, नरेस माता का मन्दिर, शीतला माता मन्दिर जांगला, ढाई माता मन्दिर, बड़ोल देवी मन्दिर, सुन्हाणी में शीतला मन्दिर, हिडिम्भा मन्दिर चलैहली इत्यादि।
बिलासपुर ज़िला हिन्दुओं और सिक्खों का पावन स्थल रहा है। यहां सिक्खों ने विभिन्न स्थानों पर गुरूद्वारों का निर्माण किया। इसमें घुमाखी तहसील में पपरोला तथा बिलासपुर तहसील में वस्सी, गुरू का लाहौर, हड़रोटा, मंजारी, मेहला और बिलासपुर नगर के गुरूद्वारे प्रसिद्ध हैं। गुरू के लाहौर के समीप सेहरा साहब, त्रिवेणी साहब एवं पौड़ साहिब प्रसिद्ध गुरूद्वारे हैं। गुरूद्वारा पंजपौड़ा, कलटी, गुरूद्वारा भी (पुलाचर), गुरूद्वारा मनण, गुरूद्वारा हार कुकार, बैहल अन्य गुरूद्वारो हैं। बिलासपुर की धरती दसवें गुरू गोबिन्द सिंह की क्रीड़ा स्थल रही है। इसी जिला की पश्चिमी सीमा पर आनंदपुर बसा हुआ है। सिक्ख धर्म प्रचार के कारण बिलासपुर में एक भव्य गुरूद्वारा बनाया।
यहां कई मस्जिदें भी हैं। यहां पंजपीरी स्थान भी है। बिलासपुर ज़िला के लोगों का मुस्लिम संतों और सिक्ख गुरूओं के साथ घनिष्ठ सम्बंध रहा है। राजतंत्र समय यहां के राजाओं ने धार्मिक सद्भाव हेतु पंजपीरी मन्दिरों का निमार्ण किया। इन मन्दिरों को गुरूद्वारा या मस्जिद की तरह बनाया गया है तथा एक ही मन्दिर में बाबा बालक नाथ, पीर, शिव, हनुमान, सीता राम सहित देवी, देवताओं की मूर्तियां स्थापित करने की परम्परा शुरू की। पंजपीरी मन्दिरों में देहरा, बाड़ा रा चौंक, मलोट, स्वार घाट, ब्राह्मणी कलां, झण्डा आदि प्रमुख हैं।
बिलासपुर नगर से लगभग 18 किलोमीटर की दूरी पर बिलासपुर-मण्डी सड़क के दाएं भाग में स्थित बैरी नामक गांव से लगभग दो किलोमीटर दूरी पर पंजगाई नामक ऐतिहासिक गांव है। यह मूल रूप में पांच गांवों- कनौण, बलोह, रोपा, धावन और पंजगाई गांवों का समूह है। इस गांव का सम्बंध पाण्डवों से बतलाया जाता है। इस स्थान पर पांच बावलियां जिन्हें स्थानीय लोग ‘बैटलू’ कहते हैं तथा एक प्राचीन शिव मन्दिर है। यहां एक प्राचीन तालाब भी है। गांव कनौण में एक बड़ी शिला है। कहते हैं कि यहां से आवाज़ देने पर पर्वत के दूसरे भाग में सतलुज नदी के किनारे वह आवाज़ सुनाई देती है। राजा ताराचन्द ने (1636 ई.-1653 ई.) में अपने जीवन काल में कुछ समय इस स्थान में राजधानी स्थापित की थी।
वरमाणा क्षेत्र में दो सीमेंट की मशहूर फैक्ट्रियां भी हैं, क्योंकि बिलासपुर क्षत्र में सीमेंट तथा चूना पहाड़ियां पाई जाती हैं। बिलासपुर के आस पास कई और स्थान भी देखने योग हैं।
चण्डीगढ़ से बिलासपुर 135 किलोमीटर है और श्री आनंदपुर साहिब से कार पर लगभग तीन घण्टे लग ही जाते हैं। सस्ते तथा मँहगे दोनों तरह के होटल मिल जाते हैं। भाषा विभाग बिलासपुर का गैस्ट हाऊस है वहां भी कमरे मिल जाते हैं। कई सस्ती सराय भी हैं। बिलासपुर का पहाड़ी क्षेत्र पुरानी परम्परा सांस्कृतिक विरासत की सोंधी खूशबू है। प्राचीन तथा आधुनिकता का सुमेल है। बिलासपुर का क्षेत्र देखने को बनता है।
बलविन्दर ‘बालम’ गुरदासपुर