कविता

प्रेम की भाषा

प्रेम की न भाषा है,न ही सूत्र वाक्य
प्रेम की भाषा का मौन है
अनुभूति का मूक स्वर है
जिसे हम अपनी अपनी भाषा में समझ सकते हैं।
प्रेम की भाषा अपनत्व है
सुखद अहसास है
जो सबको अच्छा लगता,आनंद देता है
प्रेम की भाषा समझने के लिए हमें
अपने मनोभावों को जागृत रखना पड़ता है।
प्रेम को समझना पड़ता है
तभी प्रेम की भाषा को पढ़ना आता है।
जिसे हम अपनी सुविधा से
भाषाई रंग, संबोधन दे सकते हैं,
प्रेम की भाषा को अपने अपने ढंग से
अपनी सुविधानुसार नाम दे सकते हैं
जिसे हम अपने प्रेम की भाषा कह सकते हैं।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921