आधुनिक कवियों का दौर
बात आधुनिक कवि की हो रही हैं,
पहले कवि वाद और रस पकड़ कर चलते थे।
हिंदी वालों के लिये इलाहाबाद साहित्य का तपोभूमि था,
अक्सर मध्य प्रदेश,उत्तर प्रदेश के आस-पास और बिहार के नवकवि इधर साहित्य की तपस्या करने चले आते,
कुछ को गुरुओं का आशीर्वाद मिला और कुछ गुमनाम हो गये,
आजादी के दौर में साहित्य युवाओं के सिर पर चढ़ कर बोल रहा था।
उस दौर में काव्य के दो ग्रुप चलते वाराणसी और इलाहाबाद,
बाकी के बाहर के कवि इनके नजरों में अछूत मान लिये गये,
उनकी कोई खास चर्चा नहीं होती।
कहते इन दो शहरों के साहित्य की चर्चा पुरे देश में जोर-शोर रहता।
अखबार और रेडियो स्टेशन पर इन गुरुओ की खास डिमांड रहता था,
सुनने में आया बनारस वाले साहित्यकार मिश्रा बंधु का जलवा इंद्रा गांधी जी के कार्यालय पर गूंजता था।
उस दौर में उपेंद्रनाथ अश्क को भी इलाहाबाद के घर बचाने के लिये इंद्रा गांधी के काफिले के आगे लेटना पड़ गया।
इस घटना को जब अखबार में जगह मिला तो बनारस वाले कवियों ने जमकर आलोचना किया।
कोई बोला नजर में आने के लिये उपेंद्रनाथ अश्क ने गाड़ी के सामने लेट गये।
अब इलाहाबादी के पास रोशनी में आने के लिये यही रास्ता बचा हैं।
वक्त गुजर गया,
कई बड़े प्रकाशन और पत्रिका का जन्म हुआ।
इलाहाबाद और वाराणसी के साहित्य का एकाधिकार खत्म हुआ।
अब लड़ाई राजधानी दिल्ली के लिये शुरू हो गई।
बड़े मोटे मालदार पुरस्कार जो एक साहित्यकार का भाव बढ़ा देती हैं।
साहित्य अपना रंग बदलना शुरू कर दिया,
आधुनिक साहित्य की दिशा और दशा बिगड़ गई हैं,
सोशल मीडिया वाले कवियों का जन्म आधुनिक साहित्य के लिये हत्या के पर्याप्त हैं।
अगर चुटकुले और मसखरी ना हो इनकी कविता बेस्वाद भोजन जैसी लगने लगती हैं,
जो कोशिश करने के बाद भी कान में घुसने का बिल्कुल प्रयास नहीं करता।
वीर रस सुनकर ख़ुद को कोड़े से मारने का जी करता हैं।
रही कसर श्रृंगार वालों कि वो रस में मठ्ठा डाल कर मन बिगाड़ देते हैं।
अभी पुराने समय जैसा वाराणसी और इलाहाबाद वाला जंग नहीं रहा मगर अब वही लोग सत्ताधारी सरकारी कवि और विपक्ष के लाचारी कवि बन बैठ हैं।
एक सत्ता का खुलकर बचाव करते तो दूसरा सत्ता को आईना दिखाते हैं।
दोनों अक्सर एक दूसरे के टांग खिचने की अवसर खोजते रहते हैं।
— अभिषेक राज शर्मा