कलयुग में रामराज्य (व्यंग्य)
ऐसा लग रहा है भारत में राम राज्य आ गया। देखिए ना, लोकतंत्र की पावन गंगा कलकल करती बह रही है। उसके एक तट पर राममंदिर में बैठकर भक्त रामधुन गा रहे हैं और दूसरे तट पर खुंखार शेर, नरभक्षी चीते; रंगे सियार, शातिर लकड़बग्घे, चालाक लोमड़ी, धूर्त भेड़ियों के साथ मासूम बकरियाँ, भोली गाएँ, निश्छल हिरण मुलायम भेड़ें एक साथ पानी पी रही हैं।आहाहा! कितना मनोहारी दृश्य है!!! मेरा तो जन्म सार्थक हो गया जी। जीते – जी रामराज्य का सुख मिल गया। वरना ‘राम नाम सत्य’ हो जाने के बाद भी यह सुख नसीब नहीं होता। बेचारे बापू! हे राम !! कहते मर गये पर रामराज्य के दर्शन ‘जय श्री राम’ बोलने वालों को हुए। लोकतंत्र की गंगा का उद्गम हुए पचहत्तर साल पूरे हो गये। राम जी की गंगा मैली हो गई। इस मैली गंगा में करोड़ो मछलियाँ तैर रही हैं- रंगबिरंगी। कोई भगवी है तो कोई हरी। कुछ नीली भी हैं और कुछ लाल। ध्यान से देखोगे तो चितकबरी भी दिख जायेगी। चितकबरी की विशेषता होती हैं। मौसम का हाल देखकर तत्कालिक फायदे के लिए ये हरी-नीली-पीली-लाल कैसी भी हो जाती हैं। बेचारी! गरीब!! असहाय!!! निर्बल!!!! नदी किनारे के पेड़ों पर सफेद बगुले बैठे हैं इन मछलियों पर आँखें गड़ाए। कंघी माला फेरकर सबके मुँह से लार टपक रही है इन मछलियों को देखकर। मन ही मन रामधुन गुनगुना रहे है – “राम-राम जपना, पराया माल अपना।”
यह रामराज्य भी विचित्र है। राम आये लेकिन ‘आदिपुरुष’ के रूप में। राम , राम ना हुए मानों आदिमानव हो गये। राम के साथ सब चलता है। त्रेता में एक धोबी ने गरिया लिया अब राम पढ़े-लिखे बुद्धिजीवियों के हत्थे चढ़ गये। बाबा जी कह गये थे ना-“राम नाम की लूट है, लूट सके तो लूट।” अब सब लूटने में लगे हैं। राम पर प्रश्न चिह्न लगानेवाले हाथ में कमंडल, जनेऊ धारण कर और माथे पर नारायणी टीका लगाकर तीर्थ यात्रा पर निकल पड़े हैं। कुछेक तो कन्याकुमारी से चलकर कश्मीर तक आ गये। रामराज्य की पूर्णता बिन विभीषण के कहीं संभव है। विभीषण परदेस में जाकर जनहित की भलाई का राग अलापने में लगे हैं। रामराज्य की इससे आदर्श झाँकी भला और कहाँ मिलेगी? परहित सरिस धर्म नहिं भाई!! विभीषण को पता था कि परहित का भला करते – करते आखिर में राजा वही बनेगा। इसलिए वह मन ही मन कहता था कि राम जी सबका भला करना पर शुरुआत मुझसे करना। रामराज्य में विभीषणों की टोली बन गई है जो परहित की आड़ में अपना हित साधने बैठी है।
कलयुग में रामराज्य फलफूल रहा है । तुलसी बाबा गुरू मंत्र गये थे- कलजुग केवल नाम अधारा। इसी राम नाम को आधार बनाकर लोकतंत्र की गंगा में सब अपनी-अपनी नाव खे रहे हैं। मैंने भी अपनी नाव बना ली है। वैसी ही जैसे बारिश में कागज की नाव बनाकर खेलता था। पता नहीं इस “कलयुगी रामराज्य” में मेरी नैया पार लगेगी भी या नहीं? आप सोच रहे होंगे राम का नाम भी ले रहा हूँ और शंका भी जाहिर कर रहा हूँ। है ना? क्या करूँ मैं भी उन एक सौ चालीस करोड़ में से एक हूँ ना, जो प्रतिभावान हैं, अनारक्षित हैं, निर्धन और असहाय हैं। अपना तो राम ही मालिक है। जय राम जी की!!
— शरद सुनेरी