संस्कारों की पाठशाला
संस्कारों की पाठशाला
सुबह के सात बजने वाले थे। अभी-अभी उसकी आँख खुली थी। दरवाजे पर किसी ने नॉक किया। उनींदी आँखों से उसने कहा, “आ जाओ, दरवाजा खुला है।”
“गुड मॉर्निंग मॉम। ये लीजिए आपकी गरमागरम चाय। पापा कहाँ हैं ?” चाय की ट्रे लिए मुसकराते हुए सामने उनकी पंद्रह वर्षीया बेटी परिधि खड़ी थी।
“तुम्हारे पापा बाथरूम में होंगे परी बेटा। तुम सुबह-सुबह ये… शायद नहा भी चुकी हो…” मालती को अपनी आँखों पर यकीन ही नहीं हो रहा था। आठ बजे से पहले बिस्तर नहीं छोड़ने वाली नकचढ़ी परिधि, जो अपने हाथ से एक गिलास पानी भी निकाल कर नहीं पीती थी, आज उसका ये रूप चौंकाने वाला ही था।
“लीजिए मॉम आपकी चाय। पापा की चाय मैं यहाँ रख देती हूँ। मैं नहा चुकी हूँ मॉम। आपको मैंने कल ही बताया था न कि आठ बजे से मेरी मैथ्स की ट्यूशन क्लास है। क्या बात है मॉम, आप मुझे ऐसा क्यूँ देख रही हैं ? मैंने दादी माँ से चाय बनाना सीख लिया है। पीकर देखिए।” वह आग्रह कर रही थी।
“हूँ… चाय तो बहुत अच्छी बनी है बेटा, पर तुम इतनी सुबह-सुबह…” उसे अब भी अपनी आँखों देखी और कानों सुनी पर यकीन करना मुश्किल हो रहा था।
“सुबह-सुबह ? मॉम घड़ी देखिए। सवा सात बजने वाले हैं। इतनी देर में तो दादा जी नास्ता-पानी करके बच्चों को पढ़ाने भी निकल जाया करते हैं।” वह बताने लगी।
“हूँ… सो तो है गाँव वाले सुबह बहुत जल्दी उठ जाते हैं।” मालती ने कहा।
“गुड मॉर्निंग परी बेटा। आज इतनी सुबह-सुबह कैसे उठ गई पापा की परी बिटिया ?” बाथरूम से निकलते हुए उसके पापा रमेश जी बोले।
“गुड मॉर्निंग पापा। ये लीजिए आपकी चाय।” परिधि उनकी ओर चाय की ट्रे बढ़ाती हुई बोली।
“थैंक्यू बेटा। तुम्हें क्या जरुरत थी सुबह-सुबह उठकर चाय बनाने की ? तुम्हारी मॉम बना देती न।” रमेश जी बोले।
“पापा, आज से सुबह की चाय तो मैं ही बनाऊँगी। अब मैं बड़ी हो गई हूँ। और दादी माँ से चाय बनाना भी सीख गई हूँ।” परिधि अपने चिरपरिचित अंदाज में बोली।
“व्हेरी गुड। और क्या-क्या सिखाई हैं दादी माँ ने हमारी परी बिटिया को ?” रमेश जी ने उसके सिर पर प्यार से हाथ फेरते हुए पूछा।
“चाय बनाना, नींबू का शरबत बनाना, सब्जी काटना, आटा गूँथना, रोटी और बेसन के पकोड़े बनाना सब। और दादा जी ने सुबह जल्दी सोकर उठना, रात को जल्दी सोना और हाँ, फर्स्ट क्लास फटाफट मैगी बनाना सिखाया है।” परी बोली।
“वाओ… व्हेरी गुड। आखिर मम्मी-पापा किसके हैं।” रमेश जी बोले।
“हूँ… पर दादा-दादी तो मेरे ही हैं। अच्छा मम्मी-पापा, मैं ट्यूशन के लिए जा रही हूँ। सवा नौ बजे फिर मिलते हैं। बाय…”
“बाय बेटा… संभल कर जाना।” मालती ने कहा।
परिधि ट्यूशन के लिए निकल गई।
“एक ही महिने में कितना बदल गई है हमारी परिधि। इतनी सुबह खुद से उठकर, नहा-धोकर हम सबके लिए चाय बनाना…. कितना सुकून दे रहा है, बता नहीं सकती मैं ? मैंने कभी सोचा नहीं था कि इतनी जल्दी हमारी बेटी इतनी समझदार हो जाएगी।” मालती को सब कुछ एक सुनहले सपने जैसा ही लग रहा था।
“अच्छा है मालती। बेटा हो या बेटी घर का कुछ कामकाज सीख लें, तो आगे चलकर बहुत काम आता है।” रमेश जी बोले।
“सही कह रहे हैं जी आप। भला हो आपके कंपनी वालों का जिन्होंने हम पति-पत्नी को एक महिने के लिए सिंगापुर टूर का मौका दिया और मजबूरी में ही सही, मुझे परिधि को उसके दादा-दादी के पास छोड़ना पड़ा। कितनी गलत थी मेरी सोच, जो मैं हमेशा उसे उसके दादा-दादी से दूर रखने की कोशिश करती, ताकि वह उनके लाड़-प्यार में बिगड़ न जाए।” मालती को अपने पूर्व के व्यवहार पर ग्लानि हो रही थी।
“मालती, कोई भी दादा-दादी या नाना-नानी अपने नाती-पोतों को बिगाड़ना नहीं चाहते। उनके लिए तो ये ‘मूलधन से ज्यादा ब्याज प्यारे’ होते हैं। हम माता पिता की यह महज निर्मूल आशंका होती है कि बच्चे दादा-दादी और नाना-नानी के लाड़-प्यार में बिगड़ जाते हैं।” रमेश जी ने प्यार से समझाया।
“बिलकुल सही कह रहे हैं जी आप। मैंने निश्चय कर लिया है कि अब से हम छुट्टियों में घूमने पहाड़ों पर नहीं, अच्छे संस्कार ग्रहण करने के लिए अपने गाँव, मम्मी-पापा के पास जाया करेंगे। समय-समय पर उन्हें भी अपने घर बुलाया करेंगे। कितना खुश होते हैं परिधि के साथ आपके और मेरे मम्मी-पापा।” मालती ने कहा।
“दैट्स गुड। अब हम ऐसा ही करेंगे।” रमेश जी ने कहा।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़