ग़ज़ल
तू जो खुशबू की तरह मुझमें बिखर जाता है
एक लम्हे के लिए वक्त ठहर जाता है
किसी मुखबिर की तरह लहरें तटों से मिलतीं
कोई दरिया जो समन्दर में उतर जाता है
प्रश्न खामोश निगाहों ने बेहिसाब किये
सुबह का भूला कभी शाम को घर आता है
जाने ये कौन सी मंजिल है तेरी उल्फत की
आइने में मुझे इक तू ही नजर आता है
मैं तेरे ध्यान मंे जब खुद से बिछड़ जाता हूँ
मेरा बिखरा हुआ अस्तित्व सँवर जाता है
‘शान्त’ डूबा हुआ मस्ती में रहूँ मैं हरदम
रूह का जख्म तुझे छूते ही भर जाता है
— देवकी नन्दन ‘शान्त’